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________________ २०६६ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [प्रयोविंशाध्ययनम् तत् स्थानं शाश्वतावास, लोकाग्रे दुरारोहम् । यत्सम्प्राप्ता न शोचन्ति, भवौधान्तकरा मुने ! ॥८॥ पदार्थान्वयः-तं-वह ठाणं-स्थान सासर्यवासं-शाश्वत वासरूप है लोगग्गमि-लोक के अप्रभाग में दुरारुहं-दुःख से—आरोहण योग्य जं-जिसको संपत्ता प्राप्त करके न-नहीं सोयन्ति-सोच करते भवोहन्तकरा-भव-संसार के प्रवाह-जन्म-मरण का अन्त करने वाले मुणी-मुनि लोग-हे मुने ! ___मूलार्थ हे मुने ! वह स्थान शाश्वत वासरूप है, लोक के अग्रभाग में सित है परन्तु दुरारोह है तथा जिसको प्राप्त करके भव-परम्परा का अन्त करने वाले मुनिजन सोच नहीं करते । टीका-गौतम मुनि कहते हैं कि वह स्थान नित्य वासरूप है और सर्वोपरि वर्तमान होने से लोकान में स्थित है। परन्तु वहाँ पर पहुँचना अत्यन्त कठिन है। जो आत्मा इस स्थान को प्राप्त कर लेते हैं, वे भवपरम्परा का अन्त करके फिर किसी प्रकार के शोक को प्राप्त नहीं होते । तात्पर्य यह है कि जिन आत्माओं ने केवल ज्ञान को प्राप्त करके जन्म-मरणरूप भव-परम्परा का अन्त कर दिया है, वे मुनिजन ही इस शाश्वत स्थान को प्राप्त होते हैं और इसको प्राप्त करके वे शोक दुःखादि से सर्वथा रहित हो जाते हैं। 'सासयं' इस पद में बिन्दु अलाक्षणिक है। प्रस्तुत गाथा में मोक्ष को नित्य और उसको प्राप्त करने वाले का अपुनरावर्तन, ये बातें सूचित की गई हैं। इस पर केशीकुमार कहते हैंसाहु गोयम! पन्ना ते , छिन्नो मे संसओ इमो। नमो ते संसयातीत ! सव्वसुत्तमहोयही ॥५॥ साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् । नमस्तुभ्यं संशयातीत ! सर्वसूत्रमहोदधे ! ॥५॥ भवा नरकादयतेषामोषः-'पुनःपुनर्भवरूपप्रवाहखस्यान्तकराः पर्यन्तविधायिनी भवौधान्तकरा' इति वृत्तिकारः।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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