________________
१०५८ ]
उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ त्रयोविंशाध्ययनम्
सरीरमाहु नावत्ति, जीवो वुच्चाइ नाविओ । संसारो अण्णवो वृत्तो, जं तरंति महेसिणो ॥ ७३ ॥
"
शरीरमाहुनरिति जीव उच्यते नाविकः उक्तः, यं तरन्ति
संसारोऽर्णव
महर्षयः ॥७३॥
पदार्थान्वयः — सरीरम् - यह शरीर नावत्ति - नौका है इस प्रकार आहुतीर्थंकर देव कहते हैं जीवो - जीव नाविओ - नाविक बुच्चइ - कहा जाता है संसारोसंसार को अण्णवो - समुद्र वृत्तो - कहा जाता है जं- जिसको महेसिणो-महर्षि लोग तरंति - तैर जाते हैं ।
मूलार्थ - तीर्थंकर देव ने इस शरीर को नौका के समान कहा है और जीव नाविक है तथा यह संसार ही समुद्र हैं, जिसको महर्षि लोग तैर जाते हैं।
के
टीका - गौतम मुनि कहते हैं कि जो शरीर है, वही नाव है तथा इस पर सवार होने वाला जीव नाविक माना गया है। यह संसार ही अर्णव - समुद्र तुल्य होने से समुद्र कहलाता है, जिसको महर्षि लोग तैरते हैं - हैं । प्रस्तुत गाथा में शरीर को नौका माना है और जीव को नाविक कहा गया है। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार जीवाजीवादि की नाव आधारभूत है, उसी प्रकार यह शरीर भी ज्ञानदर्शन और चारित्र आदि का आधारभूत है। जब कि शरीर को नौका की उपमा दी गई तो उसके अधिष्ठाता जीव को नाविक कहा ही जायगा । क्योंकि शरीर रूप नौका का संचालन जीव द्वारा ही हो सकता है तथा नौका समुद्र में रहती है और वह इन संसारी जीवों को उसके पार करती है । अत: यह संसार ही एक प्रकार का बड़ा भारी समुद्र है, जिसको महर्षि लोग पार कर जाते हैं ? जैसे नाव के द्वारा पार होने वाले जीव पार जाने पर नौका को छोड़कर इच्छित स्थान को प्राप्त हो जाते हैं, ठीक इसी प्रकार संसार-समुद्र से पार हो जाने वाले जीव इस शरीर को यहाँ पर छोड़कर मोक्ष में चले जाते हैं क्योंकि जैसे समुद्र को पार करने के लिए नौका एक साधनमात्र है और समुद्र को पार कर लेने के अनन्तर फिर उसकी आवश्यकता नहीं रहती, इसी प्रकार शरीर भी