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१०५० ] , उत्तराध्ययनसूत्रम्- [प्रयोविंशाध्ययनम्
मूलार्थ हे मुने ! जो सन्मार्ग से जाते हैं तथा जो उन्मार्ग में प्रस्थान कर रहे हैं, उन सब को मैं जानता हूँ । अतः मैं सन्मार्ग से च्युत नहीं होता।
टीका-केशीकुमार के प्रश्न का उत्तर देते हुए गौतम स्वामी कहते हैं कि हे मुने ! जो आत्मा-जीव सन्मार्ग में जा रहे हैं तथा उन्मार्ग में चल रहे हैं, उन दोनों को मैं भली भाँति जानता हूँ । अतः मेरा आत्मा सन्मार्ग से भ्रष्ट नहीं होता। क्योंकि जो आत्मा सुमार्ग और कुमार्ग इन दोनों को जानते हैं और जो अपने हित के इच्छुक होते हैं, वे कभी कुमार्ग में प्रस्थान नहीं करते । क्योंकि उसके कुमार्ग के फल का उनको यथार्थ रूप से ज्ञान होता है । सो मुझे इन सब का ज्ञान है। अतः मैं सन्मार्ग से भ्रष्ट नहीं होता । प्रस्तुत गाथा से जो शिक्षा प्राप्त होती है, वह यह है कि गमन करने से पूर्व, मार्ग का निश्चय अवश्य कर लेना चाहिए, जिससे कि फिर आपत्ति का सामना न करना पड़े।
इस पर केशीकुमार श्रमण और गौतम स्वामी का जो वार्तालाप हुआ, अब उसको कहते हैं
मग्गे य इइ के वुत्ते, केसी गोयममब्बवी। तओ केसि बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥६२॥ मार्गश्चेति क उक्तः, केशी गौतममब्रवीत् । ततः केशिनं ब्रुवन्तं तु, गौतम इदमब्रवीत् ॥६२॥
पदार्थान्वय:-मग्गे मार्ग य-और कुमार्ग के-कौन-सा वुत्ते-कहा है। इत्यादि समग्र पदार्थ पूर्व में आई हुई गाथा की भाँति ही जान लेना।
मूलार्थ हे गौतम ! वह सुमार्ग और कुमार्ग कौन-सा है, इत्यादि मलार्थ भी प्रथम उल्लेख की गई गाथाओं के मूलार्थ के समान ही है।
टीका–जनता के बोध के लिए केशीकुमार मुनि गौतम से कहते हैं कि वह सन्मार्ग कौन-सा है और कुमार्ग आप किसे समझते हैं तथा सन्मार्ग में जीव किस प्रकार प्रस्थान करते हैं और कुमार्ग में किस प्रकार प्रयाण करते हैं, इत्यादि प्रश्नों का उत्तर गौतम स्वामी ने अन्तिम गाथा के द्वारा दिया है।