SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 481
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwww vvvv १०४८] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [प्रयोविंशाध्ययनम् निगिएहामि-निग्रह करता हूँ धम्मसिक्खाइ-धर्मशिक्षा से कन्थग-जातिमान् अश्व की तरह। ___ मूलार्थ हे मुने! यह मन ही साहसी और रौद्र दुष्टाध है, जो कि चारों ओर भागता है। मैं उसको कन्थक-जातिमान् अश्व की तरह धर्मशिक्षा के द्वारा निग्रह करता है। टीका केशीकुमार के प्रश्न का उत्तर देते हुए गौतम स्वामी कहते हैं कि यह मन ही दुष्ट अश्व है, जो कि बड़ा रौद्र और उन्मार्ग में ले जाने वाला है । उस मन रूप अश्व को मैं धर्मशिक्षा के द्वारा अपने वश में रखता हूँ अर्थात् जिस प्रकार जातिविशिष्ट अश्व को अश्ववाहक-चाबकसवार सुधार लेता है, उसी प्रकार धर्मशिक्षा के द्वारा मैंने इस मनरूप अश्व को निगृहीत कर लिया है, जिससे कि उन्मार्गगामी होने के स्थान में यह सन्मार्ग को ग्रहण कर रहा है। अतएव मुझे यह कुपथ में नहीं ले जाता। प्रस्तुत गाथा से जो शिक्षा प्राप्त हो रही है, वह प्रत्यक्ष है । अर्थात् मन रूप घोड़ा इस जीवात्मा को जिधर चाहे ले जा सकता है, ऊँची नीची जिस गति में चाहे धकेल सकता है। इसलिए प्रत्येक मुमुक्षु पुरुष को चाहिए कि अपने मन को सुधार ले, उसे सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करे। गौतम स्वामी के इस उक्त उत्तर को सुनकर उनके प्रति केशीकुमार मुनि कहते हैं किसाहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नोवि संसओ मझ, तं मे कहसु गोयमा ! ॥५९॥ साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम, तं मां कथय गौतम ! ॥५९॥ - इस गाथा का भावार्थ पहले की तरह ही जान लेना। ___ इस प्रकार प्रश्न के सातवें द्वार में अश्वविषयक प्रश्न पूछने के अनन्तर केशीकुमार मुनि अब इस आठवें द्वार में मार्ग के सम्बन्ध में प्रश्न पूछने का प्रस्ताव करते हैं अर्थात् वह मार्ग कौन-सा है कि जिस पर चलने से आप या अन्य कोई पुरुष विनाश को प्राप्त नहीं होता। यथा
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy