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हिन्दीभाषाटीका सहितम् ।
पंखाविहूणो व्व जहेह पक्खी, भिचाविहूणो व्व रणे नरिन्दो | विवन्नसारो वणिओ व्व पोए, पहीणपुत्तोमि तहा अहंपि ॥३०॥
चतुर्दशाध्ययनम् ]
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पक्षविहीन इव यथेह पक्षी, भृत्यविहीन इव रणे नरेन्द्रः । affra
विपन्नसारो प्रहीणपुत्रोऽस्मि
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पदार्थान्वयः — पंखा-परों से विहूणो-रहित जहा - जैसे इह - इस लोक में ! पक्खी-पक्षी होता है व्व- समुच्चयार्थक है भिच्चा - भृत्य — सेना से विहूणो - विहीन रणेरण में नरिंदो नरेन्द्र व्व-समुच्चयार्थक है विवन्नसारो- -धन से हीन वणिओ - वैश्य जैसे पोए - पोत के डूबने से दुखी होता है पहीणपुतोमि पुत्रों से हीन तहा - उसी प्रकार अहंपि- मैं भी हूँ ।
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पोते,
तथाऽहमपि ||३०||
मूलार्थ - जैसे परों के विना इस लोक में पक्षी है, सेना के विना संग्राम राजा है, धन से हीन जैसे जहाज के चलाने वाला वणिक् है, उसी प्रकार का पुत्रों से हीन मैं हो गया हूँ ।
टीका - भृगुपुरोहित ने अपनी भार्या से कहा कि हे प्रिये ! जैसे इस लोक में परों के विना पक्षी होता है, सेना के बिना रण में जैसे राजा है, और जैसे धनरहित तथा डूबते हुए जहाज वाला वणिक् है, उसी प्रकार पुत्रों के विना मैं भी वैसा ही होऊँगा । तात्पर्य कि परों से रहित पक्षी जैसे मार्जार आदि घातक जीवों से जल्दी पकड़ा जाता है, और सेनारहित राजा का जैसे संग्राम में जल्दी पराजय होता है, एवं धनरहित वणिकू जैसे जहाज के डूबने से अत्यन्त दुखी होता है, उसी प्रकार पुत्रों के विना मुझे भी अनेक प्रकार के कष्टों का अनुभव करना पड़ेगा ।