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उत्तराध्ययनसूत्रम्
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[चतुर्दशाध्ययनम् । पहीणपुत्तस्स हु नत्थि वासो,
वासिद्धि भिक्खायरियाइ कालो। साहाहि रुक्खो लहई समाहिं,
छिन्नाहि साहाहि तमेव खाणुं ॥२९॥ प्रहीणपुत्रस्य खलु नास्ति वासः,
वासिष्ठि ! भिक्षाचर्यायाः कालः । शाखाभिर्वृक्षो लभते समाधि,
छिन्नाभिः शाखाभिस्तमेव स्थाणुम् ॥२९॥
पदार्थान्वयः-पहीण-रहित पुत्तस्स-पुत्र के नत्थि वासो-मेरा बसना अच्छा नहीं वासिद्धि-हे वासिष्ठि ! भिक्खायरियाइ-भिक्षाचर्या का हमारा भी कालो-काल है-समय है क्योंकि साहाहि-शाखाओं से रुक्खो-वृक्ष समाहि-समाधि को लहईप्राप्त करता है छिन्नाहि-छेदन करके साहाहि-शाखाओं का तं-उस वृक्ष को एवनिश्चय ही खाणुं-स्थाणु-ठोठ कहते हैं । हु-पादपूर्ति में।
___ मूलार्थ हे वासिष्ठि! पुत्र से रहित होकर मेरा घर में बसना अच्छा नहीं, तथा मेरा भी भिक्षाचर्या-संन्यासी होने का समय है क्योंकि शाखाओं से ही वृक्ष समाधि को प्राप्त करता है और शाखाओं के कट जाने से लोक उसको स्थाणु कहते हैं।
टीका-भृगुपुरोहित अपनी स्त्री से कहते हैं कि हे वासिष्ठि ! ( वसिष्ठगोत्र में उत्पन्न होने वाली ! ) पुत्रों के विना मेरा इस घर में रहना अब ठीक नहीं है और मेरा भिक्षाचर्या का समय भी आ गया है अर्थात् पुत्रों के चले जाने पर हमारा इस घर में रहना शोभा नहीं देता । वास्तव में वृक्ष अपनी शाखाओं से ही शोभा को प्राप्त होता है । शाखाओं के कट जाने से उसकी सारी रमणीयता जाती रहती है। उसको लोग वृक्ष के बदले स्थाणु—ठोठ कहते हैं । तात्पर्य कि ये दोनों कुमार हमारे गृहस्थाश्रम की शोभा के मूल कारण हैं । इनके चले जाने पर हमारा भी घर में रहना व्यर्थ है और उस ठोठ के समान शोभा से रहित है।
अब इसी विषय में फिर कहते हैं