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________________ १०४६ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [त्रयोविंशाध्ययनम् । टीका-केशी मुनि कहते हैं कि हे गौतम ! यह प्रत्यक्ष प्रतीत होने वाला दुष्ट घोड़ा जो कि बड़ा ही चंचल और भीम अर्थात् दुष्ट मार्ग में ले जाकर पटकने वाला तथा महान् उपद्रवों को करने वाला है । आश्चर्य यह है कि आप उस पर आरूढ हो रहे हैं, उस पर सवार हो रहे हैं परन्तु आपको उसने उन्मार्ग में ले 'जाकर कहीं पर नहीं पटका, इसका क्या कारण है ? आप कृपा करके इसके रहस्य को समझाने का कष्ट करें। प्रस्तुत प्रश्न का उत्तर देते हुए गौतम स्वामी कहते हैं किपहावन्तं निगिण्हामि, सुयरस्सी समाहियं । न मे गच्छइ उम्मग्गं, मग्गं च पडिवजई ॥५६॥ प्रधावन्तं निगृह्णामि, श्रुतरश्मिसमाहितम् । न मे गच्छत्युन्मार्ग, मार्ग च प्रतिपद्यते ॥५६॥ पदार्थान्वयः-पहावन्तं-भागते हुएं को निगिएहामि-पकड़ता हूँ सुयरस्सीश्रुतरश्मि के द्वारा समाहियं-समाहित—बंधे हुए को । अतः मे मेरा अश्व उम्मगं-उन्मार्ग को न गच्छइ-नहीं जाता च-पुनः मग्गं-मार्ग को पडिवाइ-ग्रहण करता है। - मूलार्थ हे मुने ! भागते हुए दुष्ट अश्व को पकड़कर मैं श्रुतरूप रस्सी से बाँधकर रखता हूँ। इसलिए मेरा अश्व उन्मार्ग में नहीं जाता किंतु सन्मार्ग को ग्रहल करता है। टीका-गौतम स्वामी कहते हैं कि जिस समय यह दुष्ट अश्व उन्मार्ग में जाता है, मैं उसी समय उसको पकड़ लेता हूँ-निरोध कर लेता हूँ और श्रुतरश्मिश्रुतरूप रज्जु से उसको बाँधकर रखता हूँ, जिससे कि वह उन्मार्ग में नहीं जा सकता किन्तु सन्मार्ग की ही ओर जाता है। इसलिए वह मेरे को उन्मार्ग में ले जाकर नहीं पटकता । तात्पर्य यह है कि उसका नियन्त्रण मेरे हाथ में है । अतः मैं उस पर सुखपूर्वक आरूढ होता हूँ । 'श्रुतरश्मिः-श्रुतम् आगमो नियन्त्रकतया रश्मिरिष रश्मिः-प्रप्रहः श्रुतरश्मिस्तेन समाहितो बद्धः श्रुतरश्मिसमाहितस्तम्' इति वृत्तिकारः।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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