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________________ प्रयोविंशाध्ययनम् ] हिन्दी भाषाटीकासहितम् । [ १०४५ विकृति नहीं आती । सारांश यह है कि जिस प्रकार अग्नि को शान्त करने के लिए जल का उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार अन्तरात्मा प्रदीप्त हुई कषायरूप अभि को शान्त करने के लिए निर्मन्थप्रवचनरूप महास्रोत से उत्पन्न होने वाले श्रुत, ज्ञान, शील और तपरूप निर्मल जलधारा का उपयोग करना चाहिए । गौतम स्वामी के इस उत्तर को सुनकर केशीकुमार कहते हैं साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोवि संसओ मज्यं, तं मे कहसु गोयमा ! ॥ ५४ ॥ साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम, तं मां कथय गौतम ! ॥ ५४ ॥ इस गाथा का अर्थ प्रथम आ चुका है; उसी प्रकार जान लेना । इस प्रकार छठे द्वार का वर्णन हो जाने के पश्चात् अब सातवें प्रश्नद्वार का उल्लेख करते हैं । उसमें अश्वनिग्रहसम्बन्धी प्रश्न का प्रस्ताव करते हुए केशीकुमार कहते हैं— अयं साहसिओ भीमो, दुट्ठस्सो जंसि गोयम ! आरूढो, कहं तेण न परिधावई । हीरसि ? ॥५५॥ परिधावति । अयं साहसिको भीमः, दुष्टाश्वः यस्मिन् गौतम ! आरूढः, कथं तेन न पदार्थान्वयः - अयं - यह साहसिओ - साहसिक ह्रियसे ॥५५॥ भीमो - भीम — बलवान् दुट्ठस्सो- दुष्ट अश्व – घोड़ा परिधावई - सर्व प्रकार से भागता है जंसि-जिस पर गोयम - हे गौतम! आरूढो - चढ़ा हुआ हूँ कहं- कैसे तेरा उस अश्व के द्वारा न- नहीं हरसि - दुष्ट मार्ग में ले जाया गया ? मूलार्थ - हे गौतम ! यह साइंसिक और भीम दुष्ट घोड़ा चारों ओर भाग रहा है । उस पर चढ़े हुए आप उसके द्वारा कैसे उन्मार्ग में नहीं ले जाये गये १ अर्थात् वह दुष्ट घोड़ा आपको दुष्ट मार्ग में क्यों नहीं ले गया ?
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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