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________________ १०४४] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [त्रयोविंशाध्ययनम् ___ अब गौतम स्वामी उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए इस प्रकार कहते हैंकसाया अग्गिणोवुत्ता, सुयसीलतवो जलं। सुयधाराभिहया सन्ता, भिन्ना हु न डहन्ति मे ॥५३॥ कषाया अग्नय उक्ताः, श्रुतशीलतपो जलम् । श्रुतधाराभिहताः सन्तः, भिन्नाः खल्लु न दहन्ति माम् ॥५३॥ पदार्थान्वयः–कसाया-कषाय अग्गिणो-अग्निरूप वुत्ता-कही गई है सुयसीलतवो-श्रुत, शील और तप जलं-जल है सुयधाराभिहया-श्रुतधारा से ताडित . सन्ता-की हुई भिन्ना-भेदन की हुई हु-जिससे मे-मुझे न-नहीं डहन्ति-जलातीं । मूलार्थ- मुने ! [क्रोध, मान, माया और लोभरूप ] चार कषाय अमियाँ हैं । श्रुत, शील और तपरूप जल कहा जाता है तथा श्रुतरूप जलधारा से ताडित किये जाने पर मेदन को प्राप्त हुई वे अग्नियाँ मुझे नहीं जलाती। टीका-श्रीगौतम स्वामी, केशीकुमार के प्रति कहते हैं कि हे मुने ! क्रोध, मान, माया और लोभरूप चारों विषय अग्नियाँ हैं, जो कि आत्मा के शांति आदि गुणों को निरन्तर शोषण कर रही हैं। श्रीतीर्थंकर देव महामेघ के समान हैं और जैसे मेघ से पवित्र जल उत्पन्न होता है, उसी प्रकार भगवान के पवित्र मुख से श्रुतरूप उत्तम जल उत्पन्न होता है जो कि 'आगम' के नाम से प्रसिद्ध है, उसमें वर्णित हुआ श्रुत-ज्ञान, शील–पञ्चमहाव्रतरूप और द्वादशविध तपरूप जल है । एवं श्रुतरूप जलधारा से जब वे ताड़ित की जाती हैं. अर्थात् श्रुतरूप जलधारा • जब उन पर पड़ती है, तब वे शान्त हो जाती हैं। अतः शान्त हुई वे अग्नियाँ मुझे जला नहीं सकतीं। तात्पर्य यह है कि आक्रोश, हनन, तर्जन, धर्मभ्रंश और अलाभ आदि जब निमित्त मिलते हैं, तब ही उन कषायरूप अग्नियों के प्रचंड होने की संभावना होती है परन्तु श्रुतधारारूप आगम के सत्योपदेश से जब वे अग्नियाँ शान्त कर दी जाती हैं, तब उनका आत्मगुणों पर कोई प्रभाव नहीं होता। इसलिए गौतम मुनि कहते हैं कि हे मुने ! इस प्रकार शान्त हो जाने से इनका मेरे आत्मा पर कोई असर नहीं होता अर्थात् मेरे शांति आदि आत्मगुणों में किसी प्रकार की भी
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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