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________________ प्रयोविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [१०४३ टीका-श्रीगौतम स्वामी कहते हैं कि हे भगवन् ! मैं महामेघ के स्रोत से उत्तम जल लेकर उसके द्वारा उन अग्नियों को निरन्तर सींचता रहता हूँ । अतः सिंचन की गई वे अग्नियाँ मुझे जला नहीं सकतीं अर्थात् मेरे आत्मगुणों को भस्म करने में वे समर्थ नहीं हो सकतीं । जैसे कि प्रज्वलित हुई बाह्य अग्नि तब तक ही किसी वस्तु को भस्म कर सकती है, जब तक कि वह जल के द्वारा शान्त न की जाय और जल के द्वारा शान्त की गई अग्नि जैसे किसी भी वस्तु को जलाने में समर्थ नहीं होती, उसी प्रकार आत्मा में विद्यमान अग्निज्वाला को जल के अभिषेक से शान्त कर देने पर वह आत्मगुणों को भस्म नहीं कर सकतीं। इसी लिए मैं शांतिपूर्वक विचरता हूँ। अब उक्त विषय को अधिक स्फुट करने के लिए केशीकुमार मुनि फिर पूछते हैं । यथा अग्गी य इइ के वुत्ते, केसी गोयममब्बवी। तओ केसि बुवंतं तु, गोयमों इणमब्बवी ॥५२॥ अग्नयश्चेति के उक्ताः, केशी गौतममब्रवीत् । ततः केशिनं ब्रुवन्तं तु, गौतम इदमब्रवीत् ॥५२॥ ___पदार्थान्वयः-अग्गी-अमियाँ के-कौन सी वुत्ते-कही गई इइ-इस प्रकार केसी-केशीकुमार गोयम-गौतम के प्रति अब्बवी-कहने लगे तओ-तदनन्तर बुवंतंबोलते हुए केसिं-केशीकुमार के प्रति गोयमो-गौतम स्वामी इणं-इस प्रकार अब्बवी-कहने लगे तु-अवधारण अर्थ में है। । मूलार्थ-हे गौतम ! अमियाँ कौनसी कही गई हैं ? [उपलवणरूप से महामेष कौन सा है और पवित्र जल किसका नाम है ? ] इस प्रकार केशीकुमार के कहने पर उसके प्रति गौतम खामी ने इस प्रकार कहा। दीका आत्मा में प्रज्वलित हुई अग्नि को महामेघ के पवित्र जल से शान्त करने के रहस्य को सभा में उपस्थित हुई जनता को समझाने के निमित्त केशीकुमार मुनि फिर गौतम स्वामी से पूछते हैं कि वे अग्नियाँ कौन-सी हैं तथा महामेघ किसको कहते हैं ? तथा वह उत्तम जल कौन सा है, जिसके द्वारा आप इस उक्त अग्नि-समुदाय को शान्त करते हैं ? इत्यादि ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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