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[ त्रयोविंशाध्ययनम्
मूलार्थ - हे गौतम! शरीर में जो अग्नियाँ ठहरी हुई हैं जो कि संप्रज्वलित हो रही हैं अतएव घोर वा प्रचंड तथा शरीर को भस्म करने वाली हैं, उनको आपने कैसे शान्त किया ? अर्थात् वे आपने कैसे बुझाई ?
टीका — केशीकुमार पूछते हैं कि हे गौतम ! शरीर और आत्मा में जो अनियाँ प्रज्वलित हो रही हैं और आत्मा के गुणों को भस्मसात् कर रही हैं, उन
नियों को आपने कैसे बुझाया ? कैसे शान्त किया ? क्योंकि वे बड़े रौद्र और भयानक हैं ? यहाँ पर इस गाथा में जो 'शरीरस्थ' शब्द आया है, इसलिए उपचारनय से यह आत्मा ऐसा अर्थ करना क्योंकि अग्नियों की स्थिति आत्मा में है और आत्मा का शरीर के साथ नीर-क्षीर की तरह अभेद है तथा तैजस और कार्मण शरीर तो मोक्षान्तभावी हैं अर्थात् जब तक यह आत्मा मुक्त नहीं होता, तब तक ये आत्मा से किसी समय में भी पृथक् नहीं होते । इसलिए शरीरस्थ का अर्थ यहाँ पर 'आत्मा में स्थित' ऐसा करना । 'अग्गी चिट्ठई' यहाँ पर सुप् का व्यत्यय करने
से
बहुवचन के स्थान पर एकवचन का प्रयोग किया गया है । अब इस प्रश्न के उत्तर में गौतम स्वामी कहते हैं कि
उत्तराध्ययनसूत्रम्
महामेहप्पसूयाओ, गिज्झ वारि जलुत्तमं । सिंचामि सययं ते उ, सित्ता नो डहन्ति मे ॥ ५१ ॥ महामेघप्रसूतात् गृहीत्वा वारि जलोत्तमम् । सिञ्चामि सततं देहं सिक्ता न च दहन्ति माम् ॥५१॥
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पदार्थान्वयः – महामेह – महामेघ के प्पसूयाओ - प्रसूत से गिज्भ-ग्रहण करके जलुत्तम - उत्तम जल को वारि - पवित्र पानी को सिंचामि - मैं सिंचन करता हूँ सययं - निरन्तर ते - उनको उ-फिर सित्ता-सिंचन की गई मे मुझे वे नो- निश्चय नहीं डहन्ति - दहन करतीं — जलातीं ।
मूलार्थ - महामेघ के प्रसूत से उत्तम और पवित्र जल का ग्रहण करके मैं उन अग्रियों को निरन्तर सींचता रहता हूँ । अतः सिंचन की गई वे अनियाँ . मुझे नहीं जलातीं ।