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________________ त्रयोविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ १०३६ तं लयं सव्वसो छित्ता, उद्धरिता समूलियं । विहरामि जहानायं, मुक्कोमि विसभक्खणं ॥४६॥ तां लतां सर्वतश्छित्त्वा उद्धृत्य समूलिकाम् । विहरामि यथान्यायं, मुक्तोऽस्मि विषभक्षणात् ॥४६॥ पदार्थान्वयः—तं- उस लयं -लता को सव्वसो-सर्व प्रकार से छित्ताछेदन करके समूलियं-जड़ सहित उद्धरित्ता - उखाड़कर जहानायं यथान्याय, मैं विरामि - विचरता हूँ । मूलार्थ — मैंने उस लता को सर्व प्रकार से छेदन तथा खंड खंड करके मूल सहित उखाड़कर फेंक दिया है । अतः मैं न्यायपूर्वक विचरता हूँ और विषभक्षण अर्थात् विषरूप फलों के भचण से मुक्त हो गया हूँ । 1 टीका- गौतम स्वामी केशीकुमार मुनि के प्रश्न का उत्तर देते हुए उससे कहते हैं कि मैंने उस लता - विषबेल को सर्व प्रकार से छेदन कर दिया है और उसे मूलसहित उखाड़ दिया है। अर्थात् उसका जो मूल [ राग-द्वेष ] है, उसको मैंने अपने हृदय से निकाल दिया है। इसलिए अब मैं सुखपूर्वक विचरता हूँ । जब कि लता ही नहीं रही तो फिर उसके विषरूप फल कहाँ ? इसलिए मैं विषरूप फलों . के भक्षण से भी मुक्त हो गया हूँ। इसी का यह प्रत्यक्ष परिणाम है कि मैं शांतिपूर्वक विचरता हूँ । यहाँ—विसभक्खणं - [ विषभक्षणात् ] इस पद में सुप् का व्यत्यय किया हुआ है अर्थात् पञ्चमी के स्थान पर प्रथमा का प्रयोग किया गया है । इस प्रकार गौतम स्वामी के उत्तर को सुनकर केशीकुमार ने फिर जो कुछ कहा और गौतम स्वामी ने उसका जो उत्तर दिया, अब उसका उल्लेख करते हैं— लया य इइ का बुत्ता, केसी गोयममब्बवी । केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥४७॥ गौतममब्रवीत् । इदमब्रवीत् ॥४७॥ लता च इति का उक्ता, केशी केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु, गौतम
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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