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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ त्रयोविंशाभ्ययनम्
इस प्रकार प्रश्न के चतुर्थ द्वार का वर्णन करने के अनन्तर अब पंचम द्वार का वर्णन करते हैं, जिसके लिए ऊपर की गाथा में केशीकुमार के द्वारा प्रस्ताव किया गया है । तथाहि
अन्तोहिअयसंभूया, लया फलेइ विसभक्खीणि, स उ
गोयमा !
चिट्ठइ उद्धरिया कहं ॥४५॥
तिष्ठति
गौतम !
"
अन्तर्हृदयसंभूता लता फलति विषभक्ष्याणि, सा तूद्धृता कथम् [ उत्पाटिता ] ? ॥४५॥
पदार्थान्वयः - अन्तो - भीतर हिअयसंभूषा - हृदय के भीतर उत्पन्न हुई लया-लता गोयमा-हे गौतम ! चिह्न - ठहरती है फलेइ-फल देती है विसभक्खीणि- विष - फलों का स- वह उ-फिर कहं- किस प्रकार आपने
उद्धरिया - उखेड़ी ।
मूलार्थ - हे गौतम! हृदय के भीतर उत्पन्न • हुई लता उसी स्थान पर ठहरती है, जिसका फल विष के समान [ परिणाम में दारुण ], है । आपने उस लता को किस प्रकार से उत्पाटित किया ?
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टीका – केशीकुमार मुनि, गौतम स्वामी से कहते हैं कि हे गौतम ! हृदय - मन के भीतर एक विषरूप फलों को प्रदान करने वाली लता है, जिसकी उत्पत्ति और निवास उसी स्थान पर है । आपने उस लता उस स्थान से किस प्रकार उखाड़कर फेंक दिया है ? तात्पर्य यह है कि प्रत्येक संसारी जीव के हृदय में विष फलों को उत्पन्न करने वाली एक लता विद्यमान है, जिसको कि हृदय से अलग करना बड़ा ही कठिन है । परन्तु आपने उस विषलता को अपने हृदय-स्थान से उखाड़कर परे फेंक दिया है। सो कैसे ? अर्थात् किस प्रकार से आपने उसका उत्पाटन किया ? विषफल उसको कहते हैं कि जो देखने में सुन्दर, स्पर्श में कोमल और खाने में मधुर हो परन्तु परिणाम जिसका मृत्यु हो अर्थात् खाने वाले के प्राणों का
तुरन्त ही अपहरण कर देता हो ।
इस प्रश्न उत्तर में अब गौतम स्वामी कहते हैं कि