________________
नयोक्शिाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ १०३७
केशीकुमार के उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए गौतम स्वामी कहते हैं कि· रागहोसादओ तिव्वा, नेहपासा भयंकरा।
ते छिन्दित्ता जहानायं, विहरामि जहक्कम ॥४॥ रागद्वेषादयस्तीवाः । , स्नेहपाशा भयंकराः । .... तान् छित्त्वा यथान्यायं, विहरामि यथाक्रमम् ॥४॥ ..
पदार्थान्वयः-रागद्दोसादओ-रागद्वेषादि तिव्वा-तीब्र नेह-स्नेह पासापाश भयंकरा-भयंकर हैं ते उनको छिन्दित्ता-छेदन करके जहानायं-न्यायपूर्षक विहरामि-विचरता हूँ जहक्कम-यथाक्रम ।
__ मूलार्थ हे भगवन् ! रागद्वेषादि और तीन स्नेहरूप पाश बड़े भयंकर हैं, इनको यथान्याय छेदन करके मैं यथाक्रम विचरता है। ..
टीका-गौतम मुनि केशीकुमार से कहते हैं कि प्रगाढ़ रागद्वेष, मोह और तीव्र स्नेह, ये भयंकर पाश हैं । जैसे पाश में पड़ा हुआ पशु आदि जीव परवश होता है उसी प्रकार रागद्वेषादि के वश में पड़े हुए प्राणि भी पराधीन हो रहे हैं। सो मैंने इन पाशों को यथान्याय जिन प्रवचन के अनुसार छेदन कर दिया है अतएव मैं यथाक्रम-शांतिपूर्वक इस संसार में विचरता हूँ । तात्पर्य यह है कि स्नेहरूप पाश से बँधे हुए ये संसारी जीव भयंकर से भयंकर कष्टों का सामना कर रहे हैं
और जो आत्मा इन पाशों को तोड़कर इनसे मुक्त हो गये हैं वे सुखपूर्वक इस संसार में विचरते हैं। यहाँ पर इस गाथा में दिये गये आदि शब्द से मोह का ग्रहण करना ।
इस प्रकार गौतम स्वामी के कथन को सुनकर केशीकुमार कहते हैं। साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो।
अन्नोवि संसओ मझं, तं मे कहसु गोयमा ! ॥४४ साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् । ..... अन्योऽपि संशयो मम, तं मां कथय गौतम ! ॥४४॥
टीका-इस गाथा का पदार्थ और भावार्थ आदि सब कुछ पूर्व की भाँत्ति ही समझ लेना चाहिये।
.. ... .