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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ त्रयोविंशाध्ययनम्
जो पाँच वर्ण के वस्त्रों या बहुमूल्य वस्त्रों की आज्ञा दी है उसका कारण यह था कि उनके शासन के साधु ऋजुप्राज्ञ होने से ममत्त्व रहित थे अतएव वस्त्रों के रंगने आदि में प्रवृत्त नहीं होते थे अतः उनके लिए बहुमूल्य वस्त्रों की आज्ञा थी परन्तु श्रीवर्द्धमान स्वामी के अनुयायी साधु, वक्रजड़ होने के कारण ममत्त्व विशेष से रंग आदि में प्रवृत्ति करनेवाले होने से उनके लिए मानोपेत केवल श्वेतवस्त्र और जीर्णवस्त्रों केही धारण करने का आदेश किया है । इसलिए दोनों महापुरुषों की सर्वज्ञता में कोई भी विरोध नहीं आता क्योंकि ये दोनों आज्ञाएँ विज्ञान- मूलक हैं।
अब फिर इसी विषय में कहते हैं
पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणाविह विगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंगपओयणं ॥३२॥ प्रत्ययार्थं च लोकस्य, नानाविधविकल्पनम् । यात्रार्थं ग्रहणार्थं च, लोके लिङ्गप्रयोजनम् ॥३२॥
पदार्थान्वयः–पञ्चयत्थं–प्रतीति के लिए लोगस्स - लोक के नागाविह - नानाविध विगप्पणं-विकल्प करना च - और जत्तत्थं - यात्रार्थ – संयम निर्वाह के लिए गहणत्थं-ज्ञानादि ग्रहण के लिए — वा पहचानने के लिए च- समुच्चय अर्थ में लोगे-लोक में लिंग-लिंग का पओयणं - प्रयोजन है ।
मूलार्थ — लोक में प्रत्यय के लिए, वर्षादि काल में संयम की रक्षा के लिए तथा संगम यात्रा के निर्वाह के लिए, ज्ञानादि ग्रहण के लिए, अथवा यह साधु है ऐसी पहचान के लिए लोक में लिंग का प्रयोजन है ।
टीका — केशीकुमार के दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए गौतम स्वामी ने उनके प्रति कहा कि हे भगवन् ! लिंग-वेष के विषय में आपने जो प्रश्न किया है उसका उत्तर केवल इतना ही है कि लोक में ऐसी प्रतीति हो कि यह साधु है । यदि ऐसा न हो तब तो प्रत्येक व्यक्ति यथारुचि वेष धारण करके अपनी पूजा के लिए अपने आपको साधु कहलाने का साहस कर सकता है, इसलिए लोक में, प्रत्यय-विश्वास उत्पन्न करना, लिंग का प्रयोजन है। तथा वर्षाकालादि में नानाविध उपकरणों की