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________________ प्रयोविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । . [१९२६ जो यति के लिए आज्ञा है वह भी साधुवृत्ति की प्रतीति अथ च पूर्ति के लिए है। एवं संयमरूप यात्रा के निर्वाह के लिए और ज्ञानादि का ग्रहण करने के लिए अथवा पहचान के लिए-लोक में लिंग के प्रयोजन की आवश्यकता है । यहाँ पर इतना ध्यान रहे कि साधुवेष का मुख्य प्रयोजन तो एकमात्र प्रतीति ही है और बाकी के प्रयोजन तो गौण हैं। जैसेकि-कदाचित् कर्मोदय से मन में किसी प्रकार का विप्लव-विकार उत्पन्न हो जावे तो उस समय अपने साधुवेष की ओर ध्यान देने से चित्त की वृत्ति ठीक हो सकती है । अतः इस पूर्वोक्त लिंगभेद से सर्वज्ञता में कोई वाधा उत्पन्न नहीं हो सकती। अब फिर इसी विषय में कहते हैंअह भवे पइन्ना उ, मोक्खसब्भूयसाहणा। नाणं च दंसणं चेव, चरितं चेव निच्छए ॥३३॥ - अथ भवेत्प्रतिज्ञा तु, मोक्षसद्भूतसाधनानि । ज्ञानं च दर्शनं चैव, चारित्रं चैव निश्चये ॥३३॥ पदार्थान्वयः-अह-अथ- उपन्यास अर्थ में है उ-निश्चयार्थ में भवे-है पइना-प्रतिज्ञा मोक्ख-मोक्ष का सम्भृय-सद्भूत माहणा-साधना नाणं-ज्ञान च और दसणं-दर्शन च-पुनः चरितं-चारित्र च-पुनः एव-निश्चयार्थक में है निच्छंएनिश्चय नय में। मूलार्थ-हे भगवन् ! वस्तुतः दोनों तीर्थंकरों की प्रतिज्ञा तो यही है कि निश्चय में मोच के सद्भूत साधन तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप ही हैं। टीका-केशीकुमार श्रमण के प्रति गौतम स्वामी फिर कहते हैं कि हे भगवन् ! श्रीपार्श्वनाथ और वर्द्धमान स्वामी इन दोनों महापुरुषों की यही प्रतिज्ञा है कि-निश्चय - में मोक्ष के सद्भूत साधन तो सम्यक् ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र ही हैं। बाह्यवेष तो केवल व्यवहारोपयोगी है इसलिए वह मोक्ष का मुख्य साधन नहीं किन्तु असंयम मार्ग का निवर्त्तक होने से कथंचित् परम्परया गौण साधन है वास्तविक साधन तो रत्नत्रयी-सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप को माना है। अपि च
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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