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उत्तराध्ययन सूत्रम् -
[ त्रयोविंशाध्ययनम्
पदार्थान्वयः – अचेलगो- अचेलक जो-जो धम्मो-धर्म य - और जो-जो इमो - यह संतरुत्तरो - प्रधान वस्त्र धारण करना देखिओ - उपदेशित किया वद्धमाणेणवर्द्धमान स्वामी ने या और पासेण - पार्श्वनाथ महामुखी - महामुनि ने ।
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मूलार्थ - हे गौतम ! वर्द्धमान स्वामी ने अचेलकधर्म का उपदेश दिया है और महामुनि पार्श्वनाथ स्वामी ने सचेलकधर्म का प्रतिपादन किया है।
टीका - केशीकुमार के प्रश्न का आशय यह है कि भगवान् पार्श्वमाथ और भगवान् वर्द्धमान स्वामी ये दोनों ही महापुरुष तीर्थंकर जो सर्वज्ञता में समान हैं परन्तु साधु के लिंग - वेष के विषय में इनकी प्ररूपणा में भेद नजर आता है यथा - भगवान् पार्श्वनाथ ने तो सचेलकधर्म का उपदेश दिया है और भगवान् वर्द्धमान स्वामी अचेलकधर्म का विधान करते हैं। इस प्रकार दोनों के कथन में विरोध प्रतीत होता है। दोनों के साधुओं में वेष की विभिन्नता स्पष्ट प्रतीत होती है, सो ऐसे क्यों ? अब फिर इसी विषय में कहते हैं
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एगकज्जपवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं । लिंगे दुविहे मेहावी ! कहं विप्पच्चओ न ते ॥३०॥ एककार्यप्रपन्नयोः विशेषे किन्नु कारणम् । लिङ्गे द्विविधे मेधाविन् ! कथं विप्रत्ययो न ते ॥३०॥
पदार्थान्वयः—एग–एक कज- कार्य पवन्नाणं - प्रवृत्त हुओं के विसेसे- विशेष भेद किं- क्या है नु-विनिश्चय में है कारणं हेतु मेहावी - हे मेधाविन् ! लिंगेलिंग के दुबिहे - दो भेद हो जाने पर कहं - कैसे विप्पचओ - विप्रत्यय - संशय तेतुझ को नहीं है।
मूलार्थ - हे गौतम! एक कार्य में प्रवृत्त हुओं में विशेषता क्या है ? इसमें हेतु क्या है ? हे मेधाविन् ! लिंग - वेष के दो भेद हो जाने पर क्या आपके मन में विप्रत्यय - संशय उत्पन्न नहीं होता ?
टीका - केशीकुमार श्रमण अपने प्रश्न की उपपत्ति करते हुए कहते हैं कि जब दोनों महापुरुष — श्रीपार्श्वनाथ और वर्द्धमान स्वामी — एक ही कार्य की