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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ त्रयोविंशाध्ययनम्
अतीव कठिन है क्योंकि इस काल के जीव, कुतर्क उत्पन्न करने के लिए बड़े कुशल हैं, और सद्धेतु को हेत्वाभास बनाने में अपने बुद्धि-बल का विशेष उपयोग करते हैं और विपरीत इसके मध्य के २२ तीर्थंकरों के समय के मुनियों को साधु- कल्प के लिए शिक्षित करना या साधु-कल्प का उनको बोध देना और उनके द्वारा उसका पालन किया जाना ये दोनों ही सुलभ थे। तात्पर्य यह है कि मध्य के तीर्थंकरों के भिक्षु साधु-कल्प की शिक्षा भी सुगमता से प्राप्त कर सकते हैं और उसका पालन भी उनके लिए सुलभ है, इसी हेतु से प्रथम और चरम तीर्थंकर के समय में पाँच महाव्रतों की शिक्षा का विधान है, और श्रीअजितनाथ प्रभु से लेकर भगवान् पार्श्वनाथ के समय तक चार महाव्रतों की शिक्षा का प्रतिपादन किया है जोकि २३ वें तीर्थंकर के समय तक ' एक रूप से चला आया । जैसेकि 'ऊपर बतलाया जा चुका है कि मध्यवर्त्ति तीर्थकरों
साधु ऋजुप्राज्ञ होते हैं अतः उनके लिए शिक्षात्रतों का ग्रहण और उनका पालन ये दोनों ही सुकर हैं इसलिए अपेक्षाभेद से नियमों में भेद किया गया है न कि किसी प्रकार की त्रुटि – न्यूनाधिकता को लेकर इसकी कल्पना है । इसके अतिरिक्त यदि कोई यह शंका करे कि – वाचक भी तो उसी समय के होते हैं ? तो इसका समाधान यह है कि, बुद्धि की कल्पना नाना प्रकार की होती है। सब की प्रज्ञा एक सरीखी नहीं होती इसलिए मुख्यता पर ही अधिक ध्यान दिया जाता है। तथा इसके कथन से यह भी भली भाँति प्रमाणित होता है कि समय के अनुसार नियमों में भी परिवर्तन किया जा सकता है, जिसे धर्म-भेद कहना अथवा उसमें विरोध का उद्भावन करना किसी प्रकार से भी उचित नहीं कहा जा सकता ।
गौतम स्वामी की तर्फ से दिये गये इस पूर्वोक्त उत्तर को सुनने के पश्चात् केशीकुमार श्रमण ने उनके प्रति जो कुछ कहा अब उसका वर्णन करते हैं। यथा
साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोवि संसओ मज्झ, तं मे कहसु गोयमा ! ॥२८॥
साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मे, तं मां कथय गौतम ! ॥२८॥