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प्रयोविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[ १०२३ असंगत अथ च सन्देह का उत्पादक नहीं हो सकता । यह जो नियमों में भेद किया गया है सो केवल समयानुसार केवल मनुष्य प्रकृति को ही ध्यान में रखकर किया गया है इसमें सन्देह को कोई स्थान नहीं। आप मध्यम तीर्थंकर की सन्तान हैं अतः आपके लिये इस चातुर्यामिक–चार व्रतरूप धर्म का विधान है और हम चरम तीर्थंकर की संतति हैं, अतः हमारे लिए पाँच शिक्षारूप-पाँच महाव्रतरूप धर्म के पालन का आदेश है । इसमें विरोध या संशय की उद्भावना करना व्यर्थ है । यह प्रस्तुत गाथा का अभिप्राय है। ____ अब फिर इसी विषय को पल्लवित करते हुए कहते हैंपुरिमाणं दुव्विसोझोउ, चरिमाणं दुरणुपालओ। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोझो सुपालओ ॥२७॥ पूर्वेषां दुर्विशोध्यस्तु, चरमाणां दुरनुपालकः । कल्पो मध्यमगानां तु, सुविशोध्यः सुपालकः ॥२७॥ . पदार्थान्वयः-पुरिमाणं-पूर्व के मुनियों का कप्पो–कल्प दुव्विसोझोदुर्विशोध्य था उ-और चरिमाणं-चरम मुनियों का-कल्प दुरणुपालओ-दुरनुपालक है मज्झिमगाणं-मध्यकालीन मुनियों का कल्प सुविसोझो-सुविशोध्य तुऔर सुपालओ-सुपालक है।
___ मूलार्थ-प्रथम तीर्थंकर के मुनियों का कल्प दुर्विशोध्य, और चरम तीर्थकर के मुनियों का कल्प, दुरनुपालक, किन्तु मध्यवर्ति तीर्थकरों के मुनियों का कल्प सुविशोध्य और सुपालक है।
टीका-प्रस्तुत गाथा में केशीकुमार के प्रश्न के उत्तर को और भी अधिक स्पष्ट किया गया है। गौतम स्वामी कहते हैं कि प्रथम तीर्थंकर के समय के मुनियों को साधु कल्प-आचार का समझाना बहुत कठिन था कारण कि वे ऋजुजड़ प्रज्ञासरल और मन्दबुद्धि थे अतः सरल होने पर भी उनकी बुद्धि शीघ्रता से पदार्थों के अवधारण करने में समर्थ नहीं थी तथा चरम तीर्थंकर के मुनियों का शिक्षित करना तो विशेष कठिन नहीं किन्तु इनके लिए कल्प का पालन करना