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________________ १०२२ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [त्रयोविंशाध्ययनम् जो कि मुनियों का ऋजुवक्र, जड़वक्र और ऋजुप्राज्ञ होने पर निर्भर है । जैसेकिप्रथम तीर्थंकर श्रीऋषभदेव के साधु, ऋजुजड़ थे अर्थात् सरल होने पर भी उनमें जड़ता थी, वे पदार्थ को बड़ी कठिनता से समझते थे । और चरम तीर्थकर श्रीवर्धमान स्वामी के साधु वक्रजड़ हैं जोकि शिक्षित किये जाने पर भी अनेक प्रकार की कुतर्कों द्वारा परमार्थ की अवहेलना करने में उद्यत रहते हैं तथा वक्रता के कारण छलपूर्वक व्यवहार करते हुए अपनी मूर्खता को चतुरता के रूप में प्रदर्शित करते हैं। इनके अतिरिक्त मध्य के बाईस तीर्थंकरों के मुनि ऋजुप्राज्ञ अर्थात् सरल और बुद्धिमान थे। उनको समझाने में शिक्षित करने में किसी प्रकार की भी कठिनाई उपस्थित नहीं होती थी, अथ च किसी विषय का संकेतमात्र कर देने पर ही वह उसके मर्म तक पहुँच जाते थे। अर्थात् अपनी बुद्धि के द्वारा पेश किये गये उस तत्त्व के साधक बाधक विषयों को अवगत कर लेते थे। गुरुजनों द्वारा मिली हुई शिक्षा में फलाफल का विचार और तत्संबन्धि ऊहापोह भी भली प्रकार से कर लेते थे। अत: धर्म के नियमों में भेद किया गया अर्थात् उसकी संख्या में न्यूनाधिक्य किया गया। तात्पर्य यह है कि प्रथम और चरम तीर्थंकरों के साधुओं की मानसिक स्थिति का विचार करके अहिंसा आदि पाँच शिक्षाओं–पाँच महाव्रतों का विधान किया गया और मध्यवर्ति तीर्थकरों के मुनियों की बुद्धि का विचार करके चातुर्याम अर्थात् चार महावतों का उपदेश किया गया। यह सब कुछ काल के प्रभाव से अधिकारी भेद को लक्ष्य में रख कर ही किया गया है, न कि सर्वज्ञ-प्रोक्त नियमों में किसी प्रकार की न्यूनता को देखकर उसमें सुधार करने की दृष्टि से किया गया है। इसलिए दोनों तीर्थंकरों की सर्वज्ञता पर इस .. नियम-भेद का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और ना ही इसमें किसी प्रकार का विरोध है। सारांश यह है कि द्रव्य क्षेत्र काल और भाव को दृष्टिगोचर रखते हुए जिस समय जिस प्रकार के अधिकारी पुरुष होते हैं, उनको शिक्षित करने के लिए उसी प्रकार के उपायों और नियमों की योजना करनी पड़ती है । जैसेकि पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों में, उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीरूप दोनों कालचक्र चलते हैं, इसलिए दोनों को दृष्टि में रखकर धर्म सम्बन्धि नियमों का विधान किया गया है, उसमें समय और अधिकारी भेद से भेद का होना, या करना परम आवश्यक है। इससे साध्य या लक्ष्य एक होने पर भी उसके साधन में भेद का होना किसी प्रकार से भी
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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