________________
६१२]
उत्तराध्ययनसूत्रम्- [चतुर्दशाध्ययनम् __ मूलार्थ-जिसकी मृत्यु से मित्रता है, और जो मृत्यु से भाग सकता है तथा जिसको यह ज्ञान है कि मैं नहीं मरूँगा, वही पुरुष कल-आगामी दिवस की आशा कर सकता है।
टीका-भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों को युवावस्था के बाद दीक्षित होने की अनुमति दी, परन्तु कुमारों ने उसके उत्तर में जो कुछ कहा है, उसका भाव यह है कि धर्म के आचरण में अमुक समय की प्रतीक्षा करनी किसी प्रकार से भी उचित नहीं क्योंकि पता नहीं, मृत्यु कब आकर गला दबा ले । समय की प्रतीक्षा तो वही पुरुष कर सकता है, जिसका मृत्यु के साथ मित्रचारा हो अथवा जो कोई भागकर उससे छुटकारा पा सके या जिसको मरना ही न हो परन्तु ये सब बातें असम्भव हैं अर्थात् न तो मृत्यु की किसी के साथ मित्रता है, और न कोई उससे भाग सकता है तथा ऐसा भी कोई नहीं कि जिसने मरना ही न हो तो ऐसी अवस्था में धर्माराधन के लिये समय की प्रतीक्षा करनी अर्थात् यह कहना कि अमुक काम हम फिर कभी करेंगे, किसी प्रकार से भी युक्तियुक्त नहीं प्रत्युत धर्माराधन के लिए तो जितनी शीघ्रता हो सके, उतनी ही कम है। इसलिए इस कार्य में समय की प्रतीक्षा करनी व्यर्थ है।
अब फिर इसी विषय में कहते हैं
अज्जेव धम्म पडिवज्जयामो, ___ जहिं पवना न पुणब्भवामो।
अणागयं नेव य अस्थि किंचि, -- सद्धाखमं णे विणइत्तु रागं ॥२८॥
अद्यैव धर्म प्रतिपद्यावहे, ____यं प्रपन्नौ न पुनर्भविष्यामः । अनागतं नैव चास्ति किञ्चित्,
श्रद्धाक्षमं नो विनीय रागम् ॥२८॥