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________________ चतुर्दशाध्ययनम् ] समुष्य, द्वये सम्यक्त्वसंयुताः । एकतः पश्चाज्जातौ गमिष्यामः, भिक्षमाणा गृहे गृहे ॥ २६ ॥ हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ६११ पदार्थान्वयः– एगओ – एक स्थान में संवसित्ता - बस करके दुहओ - दोनों जने सम्मतसंजुया - सम्यक्त्व से युक्त जाया- हे पुत्रो ! पच्छा-पश्चात् गमिस्सामो-जायँगे भिक्खमाणा - भिक्षा करते हुए कुले कुले - घर घर में । चपादपूर्ति में है । मूलार्थ-हम दोनों ही एक स्थान में सम्यक्त्व से युक्त होकर वास करते हुए पश्चात् – युवावस्था के आने पर दीक्षा ग्रहण करेंगे और प्रति कुल में भिक्षा ग्रहण करते हुए विचरेंगे । टीका - भृगु पुरोहित अपने पुत्रों से कहते हैं कि हे पुत्रो ! प्रथम हम चारों ही सम्यक्त्वपूर्वक देशव्रत को धारण करके यहाँ पर रहें और जब तुम्हारी अवस्था परिपक्क हो जायगी, तब हम सब दीक्षा ग्रहण करके भिक्षावृत्ति के द्वारा जीवन यात्रा को चलाते हुए विचरेंगे । इस गाथा के द्वारा भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों को यही शिक्षा दी है कि तुमने पिछली अवस्था में दीक्षा ग्रहण करनी, अभी तो गृहस्थधर्मोचित देशव्रत का ही पालन करना चाहिए । पिता के इन वचनों को सुनकर उन कुमारों ने उसके प्रति जो उत्तर दिया, अब शास्त्रकार उसका वर्णन करते हैं-जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्स वडत्थि पलायणं । जो जाणे न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया ॥२७॥ यस्यास्ति मृत्युना सख्यं यस्य वास्ति पलायनम् । " यो जानीते न मरिष्यामि, स खलु कांक्षति श्वः स्यात् ॥२७॥ पदार्थान्वयः – जस्स - जिसका अस्थि - है मच्चुणा - मृत्यु के साथ सक्खंमित्रता व-अथवा जस्स अस्थि - जिसकी है पलायणं - मृत्यु से भागने की शक्ति जो-जो जाणे - ज - जानता है न मरिस्सामि - मैं नहीं मरूँगा सो वह हु-निश्चय में कंखे-इच्छा करे कि सुए-कल सिया - हो अर्थात् कल को मैं अमुक काम करूँगा ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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