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उत्तराध्ययनसूत्रम्- [चतुर्दशाध्ययनम् दूसरों को भी सुख पहुँचाते हैं और जिनकी आरंभिक आयु व्यसनों में व्यतीत होती है वे रुग्णं दशा का अनुभव करते अथवा मृत्यु की गोद में चले जाते हैं । तात्पर्य कि प्रथम श्रेणी के मनुष्य अपनी आयु को सफल कर लेते हैं और दूसरी श्रेणी के उसे निष्फल बना देते हैं ।
- अब फिर कहते हैंजा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई। धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जन्ति राइओ ॥२५॥ या या व्रजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्तते । धर्म च कुर्वाणस्य, सफला यान्ति रात्रयः ॥२५॥
पदार्थान्वयः-जा जा-जो जो रयणी-रात्रि वच्चइ-जाती है न-नहीं सावह पडिनियत्तई-वापस आती धम्म-धर्म कुणमाणस्स-करते हुए की सफलासफल राइओ-रात्रियाँ जन्ति-जाती हैं। .
मूलार्थ-जो रजनी चली जाती है, वह पीछे लौटकर नहीं आती किन्तु धर्म का आचरण करने वाले ने उन रात्रियों को सफल कर लिया।
टीका-इस गाथा का भावार्थ यह है कि जो मनुष्य श्रुत और चारित्र रूप धर्म की आराधना करते हैं, उनकी जीवनचर्या सफल है । इसके विपरीत जिन लोगों के दिन व्यसनों के सेवन में व्यतीत होते हैं, उनका जीवन निष्फल है । इसलिए मनुष्य जन्म को प्राप्त करने का यही उद्देश्य है कि उसे धर्म के आराधन से सफल बनाने का प्रयत्न किया जाय । ... कुमारों के इस पवित्र कथन को सुनकर उनके पिता भृगु के हृदय में कुछ सद्बोध की प्राप्ति हुई और वह उन कुमारों से इस प्रकार कहने लगेएगओ संवसित्ता णं, दुहओ सम्मत्तसंजुया । पच्छा जाया गमिस्सामो, भिक्खमाणाकुले कुले ॥२६॥