________________
१०१२]
उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[प्रयोविंशाध्ययनम्
हैं तब उन्होंने अभ्युत्थान देते हुए बहुमान पुरस्सर, बड़े प्रेम के साथ उनका स्वागत किया अर्थात् योग्य पुरुषों का, योग्य पुरुष जिस प्रकार से सन्मान करते हैं उसी प्रकार से उन्होंने [ केशीकुमार श्रमण ने ] गौतम स्वामी का सन्मान किया। प्रस्तुत गाथा के द्वारा, केशीकुमार श्रमण की विशिष्ट योग्यता का परिचय देने के साथ साथ भारतीयसभ्यता के अतिथि सेवारूप प्राचीन उज्ज्वल आदर्श का भी आंशिक परिचय दे दिया गया है और वास्तव में देखा जावे तो सत्पुरुषों का यह स्वभावसिद्ध व्यवहार है कि उनके पास यदि कोई साधारण व्यक्ति भी आवे तो उसका भी वे उसकी योग्यता से अधिक आदर करते हैं। फिर गौतममुनि जैसे आदर्श साधु के लिए तो जितना भी सन्मान दिया जावे उतना कम है, इसी आशय से केशीकुमार द्वारा आचरण किये जाने वाले सद्व्यवहार के लिए सूत्रकार ने 'पडिरूवं पडिवत्ति-प्रतिरूपां प्रतिपत्तिम्' इस वाक्य का प्रयोग किया है जिस से कि उनकी—केशीकुमार की सद्भावना में अंशमात्र भी विकृति का समावेश न होने पावे । इसके अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि अपने पास आनेवाले आगन्तुक पुरुष के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए, इस बात की शिक्षा वह इस गाथा के भावार्थ से ग्रहण करे।।
अब इसी विषय को अर्थात् केशीकुमार द्वारा किये जाने वाले गौतम मुनि के सन्मान को विशेष रूप से व्यक्त करते हैं
पलालं फासुयं तत्थ, पंचमं कुसतणाणि य । गोयमस्स निसिजाए, खिप्पं संपणामए ॥१७॥ पलालं प्रासुकं तत्र, पंचमं कुशतृणानि च । गौतमस्य निषद्यायै, क्षिप्रं संप्रणामयति ॥१७॥
पदार्थान्वयः-पलालं-पलाल फासुयं-प्रासुक तत्थ-वहाँ पर कुस-कुशा य-और तणाणि-तृण पंचमं-पांचवां गोयमस्स-गौतम के निसिञ्जाए-बैठने के लिए खिप्प-शीघ्र संपणामए-समर्पण करने लगे-समर्पित किया।
मूलार्थ—उस बन में जो प्रासुक-निर्दोष, पलाल, कुश और तृणादि के वे गौतम मुनि के बैठने के लिए शीघ्र ही उपस्थित कर दिये। .