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उत्तराध्ययनसूत्रम्- [त्रयोविंशाध्ययनम् मूलार्थ-अथानन्तर केशीकुमार और गौतममुनि इन दोनों ने शिष्यों के इस प्रकार के शंका मूलक तर्क को जानकर परस्पर समागम करने-मिलने का विचार किया।
टीका-जिस समय केशीकुमार और गौतम मुनि का शिष्य-समुदाय अपने २ स्थान पर पहुंचा और उनके मार्ग में मिलने से उत्पन्न हुए संशय को जब दोनों ने जाना तब उनके सन्देह को दूर करने के लिए अर्थात् भगवान् पार्श्वनाथ और वर्द्धमान स्वामी के सिद्धान्तों में जो भेद प्रतीत होता है उसका वास्तविक रहस्य क्या है इत्यादि विषय को स्पष्ट करके उनके सन्देह को दूर करने के लिए उक्त दोनों महर्षियों ने परस्पर मिलकर वार्तालाप करना ही उचित समझा इसलिए दोनों के अन्तःकरण में समागम का विचार उत्पन्न हुआ । इस सन्दर्भ से यह भली भाँति प्रतीत होता है कि संशय की निवृत्ति के लिए, तथा संघ में शाँति को स्थापन करने के लिए परस्पर मिलने और एक दूसरे के स्थान पर जाकर प्रेमपूर्वक वार्तालाप करने में सज्जन पुरुष कभी संकोच नहीं करते क्योंकि उनके हृदय में संकीर्णता को स्थान नहीं होता।
तदनन्तरगोयमे पडिरुवन्नू, सीससंघसमाउले । जेठें कुलमवेक्खन्तो, तिन्दुयं वणमागओ ॥१५॥ गौतमः प्रतिरूपज्ञः, शिष्यसंघसमाकुलः । ज्येष्ठं कुलमपेक्षमाणः, तिन्दुकं . । वनमागतः ॥१५॥ ___पदार्थान्वयः-गोयमे-गौतम पडिरूवन्नू-विनय के जाननेवाले सीससंघशिष्य-समुदाय से समाउले–व्याप्त जेटुं-ज्येष्ठ-बड़े कुलं-कुल को अवेक्खन्तो-देखते हुए तिन्दुयं-तिन्दुक वणं-वन में आगओ-पधारे।
मूलार्थ-विनय धर्म के जानकार गौतममुनि, ज्येष्ठ-पड़े कुल को देखते हुए अपने शिष्य-मंडल के साथ तिन्दुक बन में [जहाँ पर केशीकुमार श्रमण ठहरे हुए थे] पधारे।
टीका-जब दोनों महर्षियों के मन में परस्पर समागम का विचार स्थिर हो गया तब विनय धर्म के ज्ञाता श्रीगौतम मुनि ने अपने मन में विचारा कि श्री