________________
त्रयोविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[ १००६
मूलार्थ – अचेलक जो धर्म है और सचेलक जो धर्म है, एक कार्य को प्राप्त हुए इन दोनों में मेद का कारण क्या ? अर्थात् जब फल दोनों का एक है तो फिर इन में मेद क्यों डाला गया ।
टीका – भगवान् वर्द्धमान स्वामी ने तो अचेलक धर्म स्वल्प और जीर्ण वस्त्रधारणरूप धर्म का प्रतिपादन किया है और श्री पार्श्वनाथ स्वामी ने विशिष्ट वस्त्र - बहुमूल्य - धारणरूप का कथन किया । तात्पर्य यह है कि भगवान् पार्श्वनाथ के मत में तो साधु के लिए विशिष्ट वस्त्र — बहुमूल्य वस्त्र रखने और धारण करने का आदेश है और श्री वर्द्धमान स्वामी ने साधु को अचेलक रहने अर्थात् अल्प मूल्य जीर्ण- प्राय वस्त्र धारण करने की आज्ञा दी है। जब कि दोनों का मंतव्य एक है, दोनों की एक ही साध्य की सिद्धि के लिए प्रवृत्ति है तो फिर वस्त्रादि के विषय में मतभेद क्यों ? यह इस गाथा का अभिप्राय है । यहाँ पर 'अचेलक' शब्द का नन् अल्पार्थ का वाचक है उसका अर्थ है - मानोपेत श्वेत वस्त्र, वा कुत्सित — जीर्ण श्वेतवस्त्र । तथा जिनकल्प की अपेक्षा अचेलक का अर्थ है— वस्त्र का अभाव अर्थात् वस्त्र रहित होना । सारांश यह है कि पार्श्वनाथ स्वामी ने तो सचेलक धर्म का प्रतिपादन किया है और उसके विरुद्ध वर्द्धमान स्वामी अचेलक धर्म के संस्थापक हैं अतः यह वेष सम्बन्धी विभेद भी प्रत्यक्ष सिद्ध है ।
1
शिष्यों के इस प्रकार के सन्देह - मूलक विचारों को देखकर श्रीकेशीकुमार श्रमण और श्री गौतम स्वामी ने जो विचार किया अब उसका वर्णन करते हैं
अह ते तत्थ सीसाणं, विन्नाय पवितक्कियं । समागमे कयमई, उभओ केसिगोयमा ॥१४॥
अथ तौ तत्र शिष्याणां विज्ञाय प्रवितर्कितम् । समागमे कृतमती, उभौ केशिगौतमौ ॥१४॥
पदार्थान्वयः— अह– अथानन्तर ते - वे दोनों तत्थ - उस नगरी में सीसा - शिष्यों के विन्नाय - जानकर पवितक्कियं-प्रवितर्कित- — प्रश्न को समागमे - परस्पर मिलने मैं कयमई - की है बुद्धि जिन्होंने उभओ - दोनों ही केसिगोयमा - केशि और गौतम ।