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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ त्रयोविंशाध्ययनम्
पार्श्वनाथ ने साधु के महात्रतों की संख्या चार ही मानी है अर्थात् उनके सिद्धान्त साधु के चार ही महाव्रत हैं। वे अहिंसा सत्य और अस्तेय इन तीन महाव्रतों के अतिरिक्त चौथा अपरिग्रहरूप महाव्रत मानते हैं, अर्थात् ब्रह्मचर्य व्रत को स्वतंत्र न मान कर उसका अपरिग्रह में ही अन्तर्भाव कर दिया गया है, अथवा यूं कहिए कि ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन दोनों को उन्होंने चतुर्थ नियम में ही समाविष्ट कर लिया है । परन्तु वर्द्धमान स्वामी ने इस सिद्धान्त को अंगीकार नहीं किया । उन्होंने तो ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन दोनों को स्वतंत्र व्रत मान कर महाव्रतों की संख्या पाँच मानी है । इस संख्यागत न्यूनाधिकता को लेकर सिद्धान्त विषयक मत-भेद की आशंका का होना कोई अस्वाभाविक नहीं है । इसलिए श्रीकेशीकुमार और गौतम के शिष्यों के अन्तःकरण में संशय उत्पन्न हुआ कि इसमें सत्यता कहाँ पर है, अर्थात् भगवान् पार्श्वनाथ का चातुर्याम सिद्धान्त ठीक है अथवा वर्द्धमान स्वामी का पाँच शिक्षारूप सिद्धान्त सत्य है । क्योंकि धर्म की फल- श्रुति में इनका एक ही सिद्धान्त है अर्थात् धर्म के फल में किसी को विसंवाद नहीं है ।
यहाँ पर 'महामुनि' यह तृतीया के स्थान पर प्रथमान्त पद का प्रयोग करना प्राकृत के नियम को आभारी है । इस प्रकार संख्यागत भेद के कारण धर्म के अन्तरंग नियमों में सन्देह उत्पन्न होने के साथ २ उसके बाह्य आचार — - वेषादि के विषय में उनको जो भ्रम उत्पन्न हुआ अब उसका दिग्दर्शन कराते हैं—
अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो सन्तरुत्तरो । एगकअपवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं ॥१३॥
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अचेलकश्च यो धर्मः, योऽयं सान्तरोत्तरः । एककार्यप्रपन्नयोः विशेषे किंनु कारणम् ॥१३॥
पदार्थान्वयः – अचेलगो- अचेलक जो-जो धम्मो - धर्म है य-और जो-जो इमो - यह संतरुत्तरो - प्रधान वस्त्ररूप अथवा बहुमूल्य वस्त्ररूप जो धर्म है एगकअएक काय को पवन्नाणं- प्राप्त हुए विसेसे - विशेष में किं-क्या नु-वितर्क अर्थ में है. कारणं - कारण है ।