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________________ ६६४ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [द्वाविंशाध्ययनम् पदार्थान्वयः-मणगुत्तो-मनोगुप्त वयगुत्तो-वचनगुप्त कायगुत्तो-कायगुप्त जिइंदिओ-जितेन्द्रिय सामएणं-श्रमणभाव को निचलं-निश्चलता से फासे-स्पर्श करने लगा जावजीव-जीवनपर्यन्त दढव्वओ-दृढ व्रत वाला। मूलार्थ-मन, वचन और काया से गुप्त होकर इन्द्रियों को जीतकर और पूर्ण दृढता से स्थिरतापूर्वक उसने जीवनपर्यन्त श्रमणधर्म का पालन किया। टीका-श्रमणधर्म का वास्तविक स्पर्श इस आत्मा को उस समय होता है जब कि इसके मन, वचन और शरीर ये तीनों गुप्त हों अर्थात् इनके व्यापार में पूर्ण रूप से स्वच्छता-निर्मलता आ जाय तथा इन्द्रियों पर पूरी स्वाधीनता हो। इस प्रक्रिया के अनुसार फिर से प्रबुद्ध हुए रथनेमि ने भी जीवनपर्यन्त दृढप्रतिज्ञ होकर श्रमणधर्म का स्पर्श अर्थात् आराधन किया। वह मन, वचन और शरीर से गुप्त हो गया। उसके मन, वचन और शरीर संयमप्रधान हो गये । इन्द्रियों पर उसका र्ण अधिकार हो गया । अतएव निश्चलतापूर्वक वह श्रमणधर्म का पालन करने लगा। वस्तुतः कुलीन पुरुषों का प्रायः यह स्वभाव होता है कि वे सदुपदेश के मिलते ही किसी कारणवश से उन्मार्ग में गये हुए अपने आत्मा को शीघ्र ही सन्मार्ग पर ले आते हैं। अब दोनों के विषय में कहते हैंउग्गं तवं चरित्ताणं, जाया दोणि वि केवली। सव्वं कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ॥५०॥ उग्रं तपश्चरित्वा, जातौ द्वावपि केवलिनौ । सर्व कर्म क्षपयित्वा, सिद्धि प्राप्तावनुत्तराम् ॥५०॥ ___ पदार्थाम्क्या -उग्गं-प्रधान तवं-तप को चरित्ताणं-आचरण करके जायाहो गये दोगिण वि-दोनों ही केवली-केवलज्ञानयुक्त पुनः सव्वं-सर्व कम्म-कर्म को खवित्ता-क्षय करके सिद्धि-मुक्ति को पत्ता-प्राप्त हो गये अणुत्तरं-जो प्रधान है। __मूलार्थ-उग्र तप का आचरण करके राजीमती और रथनेमि वे दोनों ही केवली हो गये । फिर सम्पूर्ण कर्मों का चय करके सर्वप्रधान सिद्धिमोक्षगति को प्राप्त हो गये।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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