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________________ द्वाविंशध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ee५ टीका – फिर वे दोनों— राजीमती और रथनेमि, कर्मशत्रुओं का विनाश करने वाले अनशनादि उग्र तप का अनुष्ठान करके केवली हो गये अर्थात् उनको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । तदनन्तर अपने आयु कर्म को समाप्त कर सर्व प्रकार से सर्व कर्मों का क्षय करते हुए सिद्धगति — मोक्ष को प्राप्त हो गये । इस कथन से निरतिचार चारित्र के पालन का फल प्रदर्शित किया गया है। यहाँ पर नियुक्तिकार लिखते हैं कि- 'समुद्रविजय की शिवादेवी के चार पुत्र हुए - १ अरिष्टनेमि, २ रथनेमि ३ सत्यनेमि और ४ दृढनेमि । इनमें अरिष्टनेमि तो बाईसवें तीर्थकर हुए । रथनेमि और सत्यनेम ये दोनों प्रत्येकबुद्ध थे । इनमें रथनेमि चार सौ वर्ष प्रमाण गृहस्थाश्रम में रहे, एक वर्ष छद्मस्थभाव में विचरे तथा पाँच सौ वर्ष प्रमाण इन्होंने केवली की पर्याय को धारण किया। सो कुल नौ सौ एक वर्ष से कुछ अधिक आयु को भोगकर वे मोक्ष को प्राप्त हुए । अध अध्ययन का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि— एवं करेंति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा । भोगेसु, जहा सो पुरुसोत्तमो ॥ ५१ ॥ त्ति बेमि । विणिय ंति इति रहनेमिज्जं बावीसइमं अज्झयणं समत्तं ॥२२॥ एवं कुर्वन्ति विनिवर्तन्ते संबुद्धाः, पण्डिताः प्रविचक्षणाः । भोगेभ्यः, यथा स पुरुषोत्तमः ॥५१॥ इति ब्रवीमि । • इति रथनमीयं द्वाविंशतितममध्ययनं समाप्तम् ॥२२॥ पदार्थान्वयः -- एवं - इस प्रकार करेंति - करते हैं संबुद्धा - तत्त्ववेत्ता पंडियापंडित और पवियक्खणा-प्रविचक्षण लोग विनियति - विनिवृत्त हो जाते हैं भोगेसुभोगों से जहा - जैसे सो - वह रथनेमि पुरुसोत्तमो - पुरुषोत्तम तिबेमि - इस प्रकार * कहता हूँ ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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