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साविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम्। क्रोधं मानं निगृह्य, मायां लोभं च सर्वशः। इन्द्रियाणि वशीकृत्य, आत्मानमुपसमाहरत् ॥४८॥
पदार्थान्वयः-कोह-क्रोध और माणं-मान का निगिरिहत्ता-निग्रह करके माया-माया च-और लोभ-लोभ को सव्वसो-सर्व प्रकार से इंदियाई-इन्द्रियों को वसे-वश में काउं-करके अप्पाणं-आत्मा को उपसंहरे-वश में किया ।
मूलार्थ-क्रोध, मान, माया और लोभ को जीतकर तथा पाँचों इन्द्रियों को वश में करके, उसने पथनेमि ने-अपने आत्मा का उपसंहार किया अर्थात् प्रमाद की ओर बढ़े हुए आत्मा को पीछे हटाकर धर्म में स्थित किया।
टीका-प्रस्तुत गाथा में आत्मा के उपसंहार अर्थात् पीछे हटाकर धर्म में स्थापित करने का क्रम बतलाया गया है । क्रोधादि कषायों के वशीभूत और इन्द्रियों के पराधीन हुआ यह आत्मा धर्म से पराङ्मुख रहता है । उसको धर्म में स्थित करने के लिए प्रथम क्रोधादि चारों कषायों को जीतने की और पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करने की आवश्यकता है। जिस समय कषायों का त्याग और इन्द्रियों का निग्रह हो जाता है, उस समय यह आत्मा स्वयमेव परभाव को त्यागकर स्वभाव में रमने लगता है । यही उसका उपसंहार अर्थात् धर्म में आरूढ करने का प्रकार है । रथनेमि ने भी सतीधुरीणा राजीमती के उपदेश से सावधान होकर अपने पतनोन्मुख आत्मा का इसी प्रकार से उपसंहार किया अर्थात् इन्द्रियों और कषायों को जीतकर परभाव से स्वभाव में स्थापन किया। सारांश यह है कि कामादि के वशीभूत होकर पतन की ओर जाते हुए अपने आत्मा को–अन्तःकरण के प्रवाह को रोककर पुनः संयम की ओर लगा लिया।
तदनन्तरमणगुत्तो वयगुत्तो, कायगुत्तोजिइंदिओ। सामण्णं निचलं फासे, जावजीवं दढव्वओ ॥४९॥ मनोगुप्तो वचोगुप्तः, कायगुप्तो जितेन्द्रियः । श्रामण्यं निश्चलमस्त्राक्षीत् , यावजीवं दृढव्रतः ॥४९॥