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________________ १०] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [बाविंशाध्ययनम् जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ। वायाविद्धो व्व हडो, अद्विअप्पा भविस्ससि ॥४५॥ यदि त्वं करिष्यसि भावं, या या दृश्यसि नारीः। वाताविद्ध इव हठः, अस्थितात्मा भविष्यसि ॥४५॥ ___ पदार्थान्वयः-जइ-यदि तं-तू काहिसि-करेगा भावं-भाव जा जा-जो जो नारिओ-नारियाँ दिच्छसि-देखेगा वायाविद्धो व्व हडो-वायु से प्रेरित किये हुए वनस्पति विशेष की तरह अद्विअप्पा-अस्थिर आत्मा भविस्ससि-हो जायगा अर्थात् तेरे आत्मा में स्थिरता नहीं रहेगी। मूलार्थ-यदि तू उक्त प्रकार के भाव करेगा, तो जहाँ २ पर स्त्रियों को देखेगा वहाँ वहाँ वायु से हिलाये गये वृक्ष विशेष की तरह तू अस्थितात्मा हो जावेगा अर्थात् तेरा आत्मा सदा के लिए अस्थिर हो जावेगा। टीका-सती राजीमती, रथनेमि को फिर कहती है कि यदि तुम अपने आत्मा में विषय सेवन के इस प्रकार के जघन्य भावों को उत्पन्न करोगे तो वायु से हिलाये हुए वृक्ष की भाँति तुम्हारा आत्मा सदा के लिए अस्थिर हो जायगा । अतः जहाँ कहीं भी तुम रूप-लावण्ययुक्त स्त्रियों को देखोगे, वहाँ पर ही तुम्हारा मन अधीर अथ च चंचल हो जायगा । आत्मा के अधीर होने से अनेक प्रकार के अनर्थों की संभावना रहती है। सारांश यह है कि उक्त प्रकार के विषयोन्मुख भाव, नाना प्रकार के अनर्थों को उत्पन्न करने वाले होने से मुमुक्षु पुरुष को सदा के लिए त्याग देने चाहिएँ । 'यथा-वातेन विद्धः समन्तात् ताडितो वाताविद्धो भ्रमित इति यावत् हठो वनस्पतिविशेषस्तदिवास्थितात्माऽस्थिरस्वभाव इति । [ वृत्तिकारः] । हठ कोई वनस्पति-वृक्ष विशेष है, जो कि वायु से ताडित किया गया सदा घूमता वा हिलता रहता है। अब फिर इसी सम्बन्ध में कहते हैंगोवालो भंडवालो वा, जहा तहव्वणिस्सरो । एवं अणिस्सरो तं पि, सामण्णस्स भविस्ससि
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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