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द्वाविंशाभ्यनस् ]
हिन्दीभाषाटीका सहितम् ।
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इस जीवन को धिक्कार है। इससे तो तेरे लिए मृत्यु अधिक श्रेयस्कर है अर्थात् इस प्रकार के असंयममय जीवन को व्यतीत करने की अपेक्षा मरना अधिक श्रेष्ठ है । इसी लिए कहा है— विज्ञाय वस्तु निन्द्यं त्यक्त्वा गृह्णन्ति किं कचित् पुरुषाः । वान्तं पुनरपि भुङ्क्ते न च सर्वं सारमेयोऽपि ॥'
अब इसका उपनय करती हुई कहती है कि
अहं च भोगरायस्स, तं चासि अन्धगवहिणो ।
मा कुले गन्धणा होमो, संजमं
निहुओ चर ॥४४॥ चास्यन्धकवृष्णेः ।
अहं च भोगराजस्य, त्वं
मा कुले गन्धनानां भूव, संयमं
निभृतश्चर ॥४४॥
पदार्थान्वयः - अहं मैं भोगरायस्स - उग्रसेन की पुत्री हूँ च- और तं- तू अन्धगवहिणो - समुद्रविजय का पुत्र असि - है कुले गन्धणा- गन्धन कुल में उत्पन्न हुए के समान मा होमो - हम दोनों न होवें अतः निहुओ-निश्चलचित्त होकर संजमंसंयम में चर - विचर ।
मूलार्थ — मैं उग्रसेन की पुत्री हूँ और तुम समुद्रविजय के पुत्र हो । हम दोनों को गन्धन कुल के सर्पों के समान न होना चाहिए। अतः तुम निश्चल होकर संयम का आराधन करो ।
टीका- राजीमती कहती है कि हे रथनेमि ! मैं भोगराज — उप्रसेन की पुत्री हूँ और तुम अन्धकवृष्णि - समुद्रविजय के पुत्र हो अतः हम दोनों को गन्धन कुलोत्पन्न सर्प के समान नहीं होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जैसे गन्धन सर्प, वमन किये हुए को भी पी लेता है उसी प्रकार हमको इन त्यागे हुए विषय भोगों को फिर से ग्रहण करना नहीं चाहिए इसलिए तुम दृढ़तापूर्वक संयम में विचरण करो अर्थात् निश्चल चित्त से संयम का आराधन करते हुए अपनी कुलीनता का ही परिचय दो जिससे कि तुम्हारे आत्मा का उद्धार हो सके ।
अब फिर कहती है
१ निन्दित समझकर त्यागी हुई वस्तु को सत्पुरुष क्या कभी फिर भी ग्रहण करते हैं ? अर्थाद कदापि नहीं । वमन किये हुए को फिर से तो श्वान ही खाता है परन्तु वह भी सम्पूर्ण नहीं खाता ।