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- उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ द्वाविंशाध्ययनम्
उत्पन्न होने वाले पुरुष हैं वे वमन तुल्य अर्थात् त्याग किये हुए इन कामभोगादि विषयों को मरणान्त कष्ट आने पर भी स्वीकार नहीं करते । सर्पों की मुख्यतया दो जातियाँ हैं— १ गन्धन, २ अगन्धन । राजीमती के कहने का तात्पर्य यह है कि तो तेरे जैसे जब एक तिर्यग्योनि का जीव भी अपनी प्रतिज्ञा से पीछे नहीं हटता, मनुष्ययोनि में उत्पन्न हुए तथा सर्व प्रकार के हित अहित का ज्ञान रखने वाले जीव को अपनी ग्रहण की हुई प्रतिज्ञा का भंग करते हुए देखकर मुझे अत्यन्त खेद होता है । बृहद्वृत्तिकार ने इस गाथा का उल्लेख नहीं किया परन्तु इस गाथा से आरम्भ करके उक्त विषय की आगे लिखी गई कतिपय अन्य गाथाओं का उल्लेख, दशवैकालिक सूत्र के दूसरे अध्ययन में किया हुआ देखने में आता है ।
अब इसी आशय को स्फुर करती हुई वह फिर कहती है
धिरत्थु तेऽजसोकामी, जो तं जीवियकारणा । वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ॥४३॥ धिगस्तु त्वामयशःकामिन् ! यत् त्वं जीवितकारणात् । वान्तमिच्छस्यापातुं श्रेयस्ते मरणं भवेत् ॥४३॥ पदार्थान्वयः—धिरत्थु—धिक् हो ते-तुझे अजसोकामी - हे अयश की कामना करने वाले ! जो-जो तं- तू जीवियकारणा - जीवन के कारण से वतं वमन के आवेउंपीने की इच्छसि - इच्छा करता है सेयं श्रेय है यदि ते - तेरी मरणं - मृत्यु भवेहो जावे ।
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मूलार्थ - हे अयश की कामना करने वाले ! तुझे विकार हो, जो कि तू असंयत जीवन के कारण से वमन किये हुए को पीने की इच्छा करता है। इससे तो तुम्हारा मर जाना ही अच्छा है ।
टीका- रथनेमि से राजीमती कहती है कि ऐसे उत्तम कुल में उत्पन्न होकर इन तुच्छ विषय-विकारों की इच्छा रखना और वह भी संयम ग्रहण करने के पश्चात् ! इससे बढ़कर तुम्हारे लिए अयश की और कौन सी बात हो सकती है। मनुष्य होकर वमन किये हुए को फिर से ग्रहण करने की अभिलाषा करता है । अतः तेरे