________________
द्वाविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[ ६८७
टीका- सती साध्वी स्त्री का मन कितना दृढ और पवित्र होता है, इस बात का चित्र इस गाथा में बड़ी ही उत्तमता से खींचा गया है। सती राजीमती, साधु बने हुए रथनेमि नाम के राजकुमार को उत्तर देती हुई कहती है कि रूप का साक्षात् स्वरूप वैश्रवण, तथा लीला और विलास की सजीव मूर्ति नलकूबर भी यदि तू होवे, अधिक तो क्या यदि तू साक्षात् इन्द्र भी होवे तो भी मैं तुझे ठुकराती हूँ अर्थात् तेरी इच्छा नहीं रखती । तात्पर्य यह है कि सती साध्वी स्त्री किसी पुरुष या देव विशेष के रूप और ऐश्वर्य को अपने सतीत्व धर्म के आगे तुच्छ से भी तुच्छ समझती है। तभी सती राजीमती ने इस प्रकार का समुचित उत्तर दिया, जिससे कि रथनेमि साधु को उसकी पूर्ण दृढता और आन्तरिक विशुद्धि का पता लग जाये । अब अपने सतीधर्म का परिचय देती हुई राजीमती फिर कहती है
पक्खंदे . जलियं नेच्छति वंतयं
जोई, धूमकेडं दुरासयं । भोत्तुं कुले जाया अगंधणे ॥४२॥
प्रस्कन्दन्ते ज्वलितं ज्योतिषम्, धूमकेतुं दुरासदम् । नेच्छन्ति वान्तं भोक्तुं कुले जाता अगन्धने ॥४२॥
पदार्थान्वयः — पक्खंदे - पड़ते हैं जलियं - जाज्वल्यमान जोइं- ज्योति - अग्नि मैं धूमकेउं - धूम जिसका केतु है दुरासयं-दुःख से आश्रित करने योग्य वतयं - मन किये हुए को भोक्तुं - भोगना - खाना नेच्छन्ति - नहीं चाहते अगंधणे- अगन्धन कुलेकुल में जाया - उत्पन्न होने वाले सर्प ।
मूलार्थ - अगन्धन कुल में उत्पन्न होने वाले सर्प, धूम जिसका केतुध्वजा है ऐसी जाज्वल्यमान अग्नि में गिरना तो स्वीकार कर लेते हैं परन्तु वमन की हुई वस्तु को फिर स्वीकार नहीं करते ।
टीका - रथनेमि को अगन्धन कुलोत्पन्न सर्प के दृष्टान्त से अपनी प्रतिज्ञा मैं दृढ रहने की शिक्षा देती हुई राजीमती कहती है कि जैसे अगन्धन कुल में उत्पन्न हुआ सर्प, अग्नि में गिरकर भस्म हो जाना तो स्वीकार कर लेता है परन्तु अपने वमन किये हुए विष को फिर से स्वीकार नहीं करता, इसी प्रकार जो उत्तम कुल में