________________
-
A.AAMAN
wwwwwwwwww
द्वाविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
गोपालो भाण्डपालो वा, यथा तद्रव्यानीश्वरः। .. एवमनीश्वरस्त्वमपि , श्रामण्यस्य भविष्यसि ॥४६॥
पदार्थान्वयः-गोवालो-गोपाल वा-अथवा भंडवालो-भाण्डपाल जहाजैसे तद्दन्ब-उस द्रव्य का अणिस्सरो-अनीश्वर होता है एवं-उसी प्रकार तं पितू भी सामएणस्स-श्रमण भाव का अणिस्सरो-अनीश्वर भविस्ससि-हो जायगा।
__ मूलार्थ-जैसे गोपाल अथवा भंडपाल उस द्रव्य का ईश्वर-खामीनहीं होता, उसी प्रकार तू भी संयम का अनीश्वर हो जायगा।
टीका-राजीमती कहती है कि हे रथनेमि ! जैसे गौओं को चराने वाला ग्वाला उन गौओं का स्वामी नहीं होता, और जैसे किसी के भाँडों की रक्षा करने वाला, वा किसी के धन की सार-संभाल करने वाला उस धन का स्वामी नहीं होता । तात्पर्य यह है कि जैसे ग्वाले को, गौओं के दुग्ध आदि के ग्रहण का कोई अधिकार नहीं और कोशाध्यक्ष को उस धन के व्यय करने की कोई सत्ता नहीं, उसी प्रकार तू भी इस संयम का ईश्वर स्वामी-मालिक नहीं होगा अर्थात् इसका जो मोक्ष अथवा स्वर्ग रूप फल है, उसका तू अधिकारी नहीं बन सकता । सारांश यह है कि द्रव्यसंयम से आत्मा का कभी कल्याण नहीं होगा। आत्मा के कल्याण का हेतु तो भावसंयम है। एवं जिस आत्मा में भावसंयम विद्यमान है, वह आत्मा विषयोन्मुख जघन्य प्रवृत्ति से सदा ही पृथक् रहता है। अतएव संयम के फल का उपभोग करने से स्वामी के समान है और द्रव्यसंयमी पुरुष की प्रवृत्ति विषयप्रवण होने से गोपाल और दण्डपाल की तरह संयम के फल से उसको सदा के .लिए वंचित रखती है। विपरीत इसके इष्ट फल होने के स्थान में अनिष्टफलप्राप्ति की अधिक संभावना रहती है। ___राजीमती के इस प्रकार शिक्षित करने पर क्या हुआ ? अब इसी विषय में कहते हैंतीसे सो वयणं सोचा, संजईए सुभासियं। अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ ॥४७॥