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________________ द्वाविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ६७ गाथा में दो बार लघु शब्द का प्रयोग किया है । तथा 'च' शब्द यहाँ पर समुच्चय का बोधक है, जिससे समुद्रविजयादि का भी उक्त आशीर्वाद वचन में ग्रहण किया गया है । एवं घोर शब्द को संसार-समुद्र का विशेषण बनाने का तात्पर्य यह है कि यह संसार जन्म-मरण और संयोग-वियोगादि दुःखों से भरा पड़ा है। अतः यह घोर - महाभयंकर है । • दीक्षा धारण करने के बाद अब राजीमती के अन्य प्रशंसनीय कार्य का वर्णन करते हैं सा पव्वईया सन्ती, पव्वावेसी तहिं बहुं । संयणं परियणं चेव, सीलवन्ता बहुस्सुआ ॥३२॥ सा प्रव्रजिता सती, प्रवाजयामास तस्यां बहून् । वजनान् परिजनाँश्चैच, शीलवती बहुश्रुता ॥३२॥ पदार्थान्वयः – सा – वह राजीमती पव्वईया संती - प्रत्रजित हुई तहि-तहाँ द्वारकापुरी में पव्वावेसी - दीक्षित करने लगी बहु- बहुत से संयणं - स्वजनों च - और परियणं-परिजनों को एव–निश्चय ही सीलवन्ता - शील वाली और बहुस्सुआ - बहुश्रुता । मूलार्थ - वह शीलवती और बहुश्रुता राजीमती दीक्षित होकर उस • द्वारकापुरी में बहुत से वजन तथा परिजनों को दीक्षित करने लगी । टीका - परम सुशीला और पंडिता राजीमती ने संसार से विरक्त होकर संयम ग्रहण करते हुए अपने आत्मा का ही उद्धार नहीं किया किन्तु अपनी सखी-सहेलियों तथा बहुत सी अन्य स्त्रियों का भी उद्धार किया अर्थात् उसने स्वयं दीक्षाव्रत अंगीकार करके वहाँ द्वारकापुरी में रहने वाली बहुत सी स्त्रियों को भी जिनधर्म में दीक्षित किया, जिससे चारित्रव्रत का आराधन करती हुई वे भी सद्गति को प्राप्त हुई । प्रस्तुत गाथा में राजीमती के लिए 'बहुस्सुआ - बहुश्रुता' विशेषण दिया है। इससे प्रतीत होता है कि उसने गृहावास में रहते समय भी श्रुत का बहुत अभ्यास किया था और गृहस्थ भी श्रुत का पर्याप्त रूप से अभ्यास कर सकते हैं । अतः राजीमती का बहुत संख्या में अन्य स्त्री-जन को दीक्षित करना उनके विशिष्ट श्रुतज्ञान को ही प्रदर्शित करता है ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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