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________________ ६७८ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [द्वाविंशाध्ययनम् संसार के सम्मुख उपस्थित किया । अतः भारत का मुख उज्ज्वल करने वाली रमणियों में राजीमती का स्थान विशेष प्रतिष्ठा को लिये हुए है। कूर्च और फनक शब्द के विषय में वृत्तिकार लिखते हैं-'कू] गूढकेशोन्मोचको वंशमयः, फणकः कङ्कतकस्ताभ्यां प्रसाधिताः संस्कृता ये तान्' अर्थात् उलझे हुए केशों को सुलझाने वाला बाँस का बना हुआ मोटे दाँतों वाला ब्रुश अथवा कंधे की सी आकृति का यंत्र विशेष कूर्च है और बारीक दाँतों वाली कंघी को फणक कहते हैं। उनके द्वारा संस्कारित वे केश थे। इस कथन से केशों का सौंदर्य और विशिष्ट संस्कार का बोध कराना अभिप्रेत है। इस प्रकार वैराग्य के रंग में रंगी हुई राजीमती के दीक्षित हो जाने के बाद वासुदेवादि ने उसको जो कुछ कहा, अब उसका वर्णन करते हैं- .. वासुदेवो य णं भणई, लुत्तकेसं जिइंदियं । संसारसागरं घोरं, तर कन्ने लहुं लहुं ॥३१॥ वासुदेवश्च तां भणति, लुप्तकेशां जितेन्द्रियाम् । संसारसागरं घोरं, तर कन्ये लघु लघु ॥३१॥ ___ पदार्थान्वयः-वासुदेवो-वासुदेव य-पुनः णं-उसको भणई-कहता है लुत्तकेसं-लुप्तकेश जिइंदियं-जितेन्द्रिय को संसारसागरं-संसारसमुद्र को घोर-जो अति भयंकर है को-हे कन्ये ! लहुं लहुं-शीघ्र २ तर-तर जा। मूलार्थ-वासुदेवादि राजीमती के प्रति जो लुंचित केश और इन्द्रियों को जीतने वाली है-कहते हैं कि हे कन्ये ! तू इस संसाररूप दुस्तर समुद्र से शीघ्र शीघ्र पार होजा! टीका-जिस समय राजकुमारी राजीमती श्रमणधर्म में प्रविष्ट हो गई अर्थात् उसने दीक्षा को अंगीकार कर लिया, उस समय वासुदेव और समुद्रविजय आदि आशीर्वाद देते हुए राजीमती से कहते हैं कि हे कन्ये ! तू इस घोर संसार-समुद्र से अतिशीघ्र पार हो । तात्पर्य यह है कि जिस पवित्र उद्देश्य को लक्ष्य में रखकर तुमने इस संयमवृत्ति को ग्रहण किया है, वह तुमको जल्दी से जल्दी प्राप्त होवे अर्थात् उसकी सिद्धि में तुमको पूर्ण सफलता मिले । उक्त कथन आशीर्वाद रूप होने से ही प्रस्तुत
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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