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द्वाविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[ ६७७ जब वे फिर उज्जयन्त पर्वत के समीपवर्ती उसी सहस्राम्रवन में पधारे, तब उनके मुखारविन्द से धर्म के पवित्र उपदेश को सुनकर राजीमती की वैराग्य भावना में एकदम जागृति हो उठी। उसके कारण प्रबुद्ध हुई राजीमती क्या करती है, अब इसी का दिग्दर्शन कराते हैं
अह सा भमरसंनिभे, कुच्चफणगप्पसाहिए । सयमेव लुचई केसे, धिइमंती ववस्सिया ॥३०॥ अथ सा भ्रमरसन्निभान्, कूर्चफनकप्रसाधितान् । खयमेव लुञ्चति केशान् , धृतिमती व्यवसिता ॥३०॥
पदार्थान्वयः-अह-अथ अनन्तर सा-वह राजीमती भमरसंनिमे-भ्रमर के सदृश कृष्ण वर्ण वाले कुच्च-कूर्च फणग-कंघी से प्पसाहिए-सँवारे हुए केसे-केशों को सयमेव-अपने आप लुचई-ढंचन करती है धिहमंती-धैर्य वाली ववस्सियाशुभ अध्यवसाय युक्त ।
मूलार्थ-तदनन्तर धैर्ययुक्त और धार्मिक अध्यवसाय वाली उस राजीमती ने कूर्च और फनक (खुश और कंघी ) से संस्कार किये हुए अपने भ्रमरसदृश केशों को अपने हाथ से ही लुंचन कर दिया अर्थात् अपने ही हाथ से उखाड़कर सिर से अलग कर दिया।
... टीका-प्रस्तुत गाथा में राजीमती की धीरता और वैराग्य की उत्कट भावना का दिग्दर्शन कराया गया है। भगवान् नेमिनाथ के प्रेम और वैराग्य से गर्भित उपदेशामृत के पान से ज्ञानगर्भित वैराग्य की चरम सीमा को प्राप्त हुई राजीमती ने आध्यात्मिक प्रेम के दिव्य आदर्श को संसार के सामने जिस रूप में रक्खा है, वह अन्यत्र मिलना यदि असम्भव नहीं तो कठिनतर तो अवश्य है। उसका सांसारिक पदार्थों पर से रहा सहा का मोह भी जाता रहा । शरीर पर के ममत्व को भी उसने इस तरह पर परे फेंक दिया, जैसे सर्प काँचली को फेंक देता है । अपने शृंगारित अति सुन्दर केशों को अपने हाथ से ही उखाड़कर परे फेंक दिया और श्रमणवृत्ति को धारण करके अपनी वैराग्यभावना और संयमनिष्ठा का परिचय देते हुए विशुद्ध प्रेम का भी सजीव आदर्श