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________________ ६७६ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् - [ द्वाविंशाध्ययनम् पूर्वभव का जागा हुआ स्नेह उसे विशेष रूप से सन्ताप देने लगा । किसी २ प्रति में 'सोऊण रायवरकन्ना' ऐसा पाठ भी देखने में आता है । किन्तु अर्थ में कोई विशेष अन्तर नहीं है । 1 भगवान् नैमिनाथ के पीछे लौट जाने और श्रमणधर्म में प्रविष्ट हो जाने पर शोकसन्तप्त राजीमती के हृदय में अनेक प्रकार के विकल्प उत्पन्न होने लगे । वह मन में चिन्ता करती हुई जो कुछ कहती है, अब उसी का वर्णन करते हैं राईमई विचिंतेई, धिरत्थु मम जीवियं । जाऽहं तेणं परिच्चत्ता, सेयं पव्वइउं मम ॥ २९ ॥ राजीमती विचिन्तयति, धिगस्तु मम जीवितम् । याऽहं तेन परित्यक्ता, श्रेयः प्रव्रजितुं मम ॥ २९ ॥ पदार्थान्वयः–राईमई - राजीमती विचितेई - चिंतन करती है धरत्थु - धिक् हो मम - मेरे जीवियं-जीवन को जा - जो अहं - मैं तेरा - तिस के द्वारा परिच्चत्ता- सर्व प्रकार से त्यागी गई, अतः सेयं-श्रेष्ठ है मम - मेरे को अब पव्वइ-प्रत्रजित — दीक्षित हो जाना । मूलार्थ - राजीमती विचार करती हुई कहती है कि धिक्कार हो मेरे इस जीवन को, जो मुझे उसने - भगवान् नेमिनाथ ने - सर्वथा त्याग दिया । अतः अब तो मेरे लिए भी दीक्षित होना ही श्रेयस्कर है । टीका- राजीमती विचार करती हुई अपने जीवन को धिक्कार दे रही है। अर्थात् अपने जीवन को विशेष रूप से निन्दनीय ठहरा रही है। कारण यह है कि भगवान् नेमकुमार उसको त्यागकर चले गये । इससे खिन्न होकर उसने अपने जीवन को नितान्त अयोग्य समझा । आगामी काल में इस प्रकार के असह्य दुःख का अनुभव करना न पड़े, एतदर्थ वह दीक्षा लेकर अपने जीवन को सुयोग्य बनाने में ही अपना हित समझती हुई कहती है कि मेरा कल्याण अब इसी में है कि मैं दीक्षा ग्रहण कर लूँ । जब तक नेमिनाथ भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ, तब तक राजीमती वैराग्यगर्भित अन्तःकरण से घर में ही रही । जिस समय उनको केवल ज्ञान हो गया और वे वहाँ से विहार कर गये तथा कुछ समय के बाद विश्वरते हुए
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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