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द्वाविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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के प्रति उनकी श्रद्धा-भक्ति की विशिष्टता का सूचन होता है । वन्दना शब्द यद्यपि केवल स्तुतिमात्र का बोधक है तथापि इस स्थान में उसके वन्दना और नमस्कार ये दोनों ही अर्थ ग्रहण किये गये हैं तथा 'धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं' इस नियम के अनुसार दोनों ही अर्थ प्रामाणिक एवं युक्तियुक्त प्रतीत होते हैं। इसके पश्चात् भगवान् नेमिनाथ ने उम्र तपश्चर्या के द्वारा कर्मबन्धनों की विकट श्रृंखलाओं को तोड़कर क्षपक श्रेणी में प्रवेश किया और ५४ दिन के बाद उनको लोकालोक के प्रकाश करने वाले केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गई, जिससे वह संसार के समस्त पदार्थों को सामान्य विशेषरूप से यथावत् जानने लगे अर्थात् संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं कि जो उनके ज्ञान से तिरोहित हो [ यह वर्णन प्रसंगवशात् किया गया है ] ।
जिस समय भगवान् नेमिनाथ पशुओं की दीन दशा को देखकर विवाह का संकल्प छोड़कर वापस लौट आये, उस समय कुमारी राजीमती [ जिसका कि उन्होंने पाणिग्रहण करना था ] की क्या दशा हुई, अब इसका वर्णन करते हैं --- रांयकन्ना, पव्वज्जं सा जिणस्स उ ।
सोऊण
णीहासा उ निराणन्दा, सोगेण उ समुच्छिया ॥ २८ ॥
श्रुत्वा राजकन्या, प्रव्रज्यां सा जिनस्य तु । निर्हास्याच निरानन्दा, शोकेन तु समवसृता ॥ २८॥
| पदार्थान्वयः - सोऊण - सुनकर सा-यह राजीमती रायकन्ना - राजकन्या पव्व - प्रव्रज्या दीक्षा जिणस्स - जिन भगवान् की उ - पादपूर्ति में गीहासा - हास्यरहित हो गई निराणन्दा - आनन्दरहित हो गई सोगेण - शोक से समुच्छिया - व्याप्त हो गई उ-पादपूर्ति में है ।
मूलार्थ - वह राजकन्या राजीमती जिन भगवान् की दीक्षा को सुनकर हास्यरहित, आनन्दरहित और शोक से व्याप्त हो गई ।
टीका – जिस समय राजीमती को नेमिनाथ भगवान् के वापस लौटने और दीक्षाग्रहण करने का समाचार मिला, उस समय उसका सारा ही विनोद जाता रहा, सारा ही हर्ष विलीन हो गया और शोक के मारे व्याकुल हो गई। तात्पर्य यह है कि