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उत्तराध्ययनसूत्रम्- [ द्वाविंशाध्ययनम् सुगन्धगन्धिए-सुगन्ध से सुगन्धित मउअ-मृदु कोमल कुंचिए-कुटिल केसे-केशों को पंचमुट्ठीहिं-पंचमुष्टि से तुरियं-शीघ्र लुचई-लुंचन करते हैं समाहिओ-समाहितचित्त।
मूलार्थ तदनन्तर भगवान् अरिष्टनेमि ने, स्वभाव से सुगन्धित और कोमल तथा कुटिल केशों को अपने आप ही पाँच मुट्टी से बहुत ही शीघ्र लुंचित कर दिया अर्थात् अपने हाथ से केशों को सिर पर से अलग कर दिया, जिनका कि आत्मा समाधियुक्त था।
टीका-जिस समय भगवान् अरिष्टनेमि ने सामायिक चारित्र को ग्रहण किया, उसी समय सिर पर के केशों को पाँच मुट्ठी में लोच करके अलग कर दिया। उनके केश सुगन्धयुक्त और स्वभाव से ही कोमल तथा कुटिल अर्थात् लच्छेदार, धुंघराले एवं भ्रमर के समान अत्यन्त कृष्ण थे। इस कथन से उनके केशों की मनोहरता व्यक्त होती है। उनके आत्मा को समाहित कहने से उनमें प्रमाद के अभाव का सूचन किया गया है। इसी प्रकार उनके साथ दीक्षित होने वाले अन्य सहस्र पुरुषों ने भी लोच किया। साथ ही सब ने यह प्रतिज्ञा भी की कि- 'सर्व सावा ममाकर्तव्यमिति । प्रतिज्ञारोहणोपलक्षणमेतत्' । अर्थात् सर्व प्रकार के सावध व्यापार का मैं आज से परित्याग करता हूँ। बृहद्वृत्ति में लिखा है कि-'इह तु वन्दिकाचार्यः सत्त्वमोचनसमये सारस्वतादिप्रबोधनभवनगमनमहायानानन्तरं निष्क्रमणाय पुरीनिर्गममुपवर्णयांबभूवेति' । अर्थात् जिस प्रकार तीर्थंकर दीक्षित होते हैं, सर्व काम उसी प्रकार से किये गये। यह सर्व वृत्तान्त नेमिचरित्र आदि ग्रन्थों से जान लेना ।
__ भगवान् नेमिनाथ के चारित्र ग्रहण के समय पर वासुदेव ने जो कुछ कहा, अब उसका वर्णन करते हैंवासुदेवो य णं भणई, लुत्तकेसं जिइंदियं । . इच्छियमणोरहं तुरियं, पावसू तं दमीसरा ॥२५॥ वासुदेवश्च तं भणति, लुप्तकेशं जितेन्द्रियम् । ईप्सितमनोरथं त्वरितं, प्राप्नुहि त्वं दमीश्वर ! ॥२५॥
पदार्थान्वयः-वासुदेवो-वासुदेव य-और-बलभद्रादि भणई-कहते हैं