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द्वाविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम्।
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लुत्तकेसं-लुप्तकेश जिइंदियं-जितेन्द्रिय के प्रति इच्छियमणोरह-इच्छित मनोरथ को तं-तू दमीसरा-हे दमीश्वर ! तुरियं-शीघ्र पावसु-प्राप्त हो । णं-प्राग्वत् ।
_मूलार्थ-वासुदेव ने लिप्तकेश और जितेन्द्रिय-भगवान् से कहा कि हे दमीश्वर ! तू इच्छित मनोरथ को शीघ्र ही प्राप्त कर ।
टीका-प्रस्तुत गाथा में भगवान नेमिनाथ के प्रति वासुदेवादि के द्वारा दिये जाने वाले आशीर्वाद का उल्लेख किया गया है। जब भगवान् दीक्षित हो गये तो उन्होंने केशलुंचन भी कर दिया । तब वासुदेव, बलदेव और समुद्रविजय आदि ने संमिलित होकर आशीर्वाद के रूप में उनसे कहा कि-हे दमीश्वर ! आप अपने मनोरथ में शीघ्र से शीघ्र सफल होवें । तात्पर्य यह है कि मोक्षरूप लक्ष्मी को आप शीघ्र से शीघ्र प्राप्त करें। सत्पुरुषों का यह कर्तव्य है कि वह शुभ कार्य में प्रवृत्त होने वाले पुरुष को प्रोत्साहन देने के साथ २ आशीर्वाद भी देते हैं, जिससे कि वह उत्साहपूर्वक लगा हुआ अपने अभीष्ट को बहुत जल्दी प्राप्त कर लेता है। 'अ'-'च' शब्द समुच्चयार्थ में प्रयुक्त हुआ है। - फिर कहते हैं
नाणेणं दंसणेणं च, चरित्तेणं तवेण य। खन्तीए मुत्तीए, वडमाणो भवाहि य ॥२६॥ ज्ञानेन दर्शनेन च, चारित्रेण तपसा च । क्षान्त्या मुक्त्या , वर्धमानो भव च ॥२६॥
पदार्थान्वयः-नाणेणं-ज्ञान से च-और दंसणेणं-दर्शन से चरित्तेणंचारित्र से य-और तवेण-तप से खन्तीए-क्षमा से य-और मुत्तीए-निर्लोभता से वडमाणो वृद्धि पाने वाला भवाहि-हो।
मूलार्थ हे भगवन् ! आप ज्ञान, दर्शन और चारित्र से तथा तप, पमा और निर्लोभता से सदा वृद्धि को पाते रहें।
टीका-इस गाथा में भी आशीर्वादयुक्त वचनों का ही प्रयोग हुआ है। वासुदेवादि फिर कहते हैं कि हे भगवन् ! आपका ज्ञान, आपका दर्शन, आपका