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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ द्वाविंशाध्ययनम्
जरासंध के भय से व्याकुल हुए यादव द्वारका में जा बसे थे, यह सब वृत्तान्त हरिवंश पुराण आदि अन्य प्रन्थों से जान लेना । जरासन्ध के मारे जाने के पश्चात् भारत की राजधानी भी द्वारका ही बनी थी। इसलिए द्वारका का वर्णन किया गया हैं । फिर क्या हुआ, अब इसका वर्णन करते हैं—
देवमणुस्स परिवुडो , सिबियारयणं तओ निक्खमिय बारगाओ, रेवययंमि ठिओ देवमनुष्यपरिवृतः शिविकारत्नं ततः
निष्क्रम्य
समारूढो । भयवं ॥२२॥
"
समारूढः ।
भगवान् ॥२२॥
परिवुडो - परिवृत हुए
द्वारकातः, रैवतके स्थितो पदार्थान्वयः — देवमणुस्स – देवता और मनुष्यों से तओ - तदनन्तर सिबियारयणं - शिविकारत्न में समारूढो - आरूढ हुए निक्खमियनिकलकर बारगाओ – द्वारका से रेवययंमि - वतगिरि पर भयवं भगवान् ठिओस्थित
हुए ।
मूलार्थ - तब भगवान् देवता और मनुष्यों से घिरकर उत्तम शिविका में विराजमान होकर द्वारका से निकलकर रैवतक पर्वत पर जा पहुँचे ।
टीका- जब देवों का समुदाय एकत्रित हो गया, तब उत्तरकुरु नामक शिविकारत्न पर भगवान् आरूढ हो गये और द्वारका से निकलकर बड़े समारोह के साथ रैवतगिरि पर पहुँचे । इस कथन का तात्पर्य यह है कि वार्षिक दान दे चुकने के अनन्तर और देवताओं के आगमन के पश्चात् भगवान् देवनिर्मित शिविकारत्न पर आरूढ हो गये और बड़े समारोह से, द्वारका के समीप में आने वाले रैवतउज्जयन्त पर्वत पर पहुँच गये । उनके शिविकारत्न को देवों और मनुष्यों— अर्थात् दोनों ने उठाया हुआ था । यहाँ पर इस बात का अनुमान तो पाठकगण अनायास ही कर सकते हैं कि एक तो तीर्थंकर देव की दीक्षा, दूसरे दीक्षामहोत्सव कराने वाले स्वयं वासुदेव, तो उस समय का दीक्षामहोत्सव कितना दर्शनीय और अभूतपूर्व रहा होगा ।
रैवतगिरि पर पधारने के बाद क्या हुआ, अब इस विषय में कहते हैं