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________________ द्वाविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ६६६ सारथि को कुण्डलादि अर्पण करने के अनन्तर उन्होंने क्या किया, अब इसी के सम्बन्ध में कहते हैंमणपरिणामोय कओ, देवायजहोइयंसमोइण्णा । सविडिइ सपरिसा, निक्खमणं तस्स काउं जे ॥२१॥ मनःपरिणामे च कृते, देवाश्च यथोचितं समवतीर्णाः । सर्वर्या सपरिषदः, निष्क्रमणं तस्य कर्तुं ये ॥२१॥ ___ पदार्थान्वयः–मणपरिणामो-मन के परिणाम कओ-दीक्षा के लिए किये य-और देवा-देवता भी जहोइयं-यथोचित रूप में समोइएणा-आ गये सविड्डिासर्व ऋद्धि य-और सपरिसा-सर्व परिषद् के साथ तस्स-उस भगवान् के निक्खमणंनिष्क्रमण को काउं-सम्पादन करने के लिए । जे-पादपूर्ति में है। मूलार्थ—जिस समय भगवान् ने दीचा के लिए मन के परिणाम किये, उस समय देवता भी अपनी सर्व ऋद्धि और परिषद के साथ उनका दीचामहोत्सव करने के लिए आ गये। टीका-प्रस्तुत गाथा में विवाह की इच्छा का सर्वथा परित्याग करके श्रमण धर्म में दीक्षित होते हुए भगवान् अरिष्टनेमि के देवों द्वारा किये जाने वाले दीक्षामहोत्सव की सूचना दी गई है। तात्पर्य यह है कि वध के लिए उपस्थित किये गये जीवों को बन्धन से मुक्त कराकर और पारितोषिक रूप में अपने सभी भूषण सारथि को देकर नेमिकुमार विवाह से पराङ्मुख होकर जब वापस द्वारकापुरी में आ गये तथा कुछ समय वहाँ पर ठहरकर और वार्षिक दान देकर जब वे दीक्षा के लिए उद्यत हुए, तब उनका दीक्षामहोत्सव करने के लिए भवनपति, बाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक जाति के देवता लोग, अपनी २ ऋद्धि और अभ्यन्तर, मध्यम तथा बाहर की परिषद् को साथ लेकर वहाँ पर आये । तीर्थंकर होने वाले महापुरुषों की दीक्षा में इन्द्रादि देवों का पधारना अवश्य होता है, यह उनका यथोचित व्यवहार और वे बड़े समारोह के साथ आया करते हैं । यद्यपि प्रथम सौर्यपुर का उल्लेख किया गया है तथापि दीक्षा उनकी द्वारका में हुई थी। कंस की मृत्यु के पश्चात्
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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