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चतुर्दशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[६०७ टीका-कुमार अपने पिता से फिर कहने लगे कि पिता जी ! यह लोक सर्व दिशाओं से वेष्टित और सर्व प्रकार से व्यथित हो रहा है । इस पर शत्रों की अमोघ धारायें गिर रही हैं । ऐसी अवस्था में हम लोग घर में किस प्रकार रह सकते हैं क्योंकि घर में हम को किसी प्रकार का भी आनन्द नहीं । कल्पना करो कि एक मृग है जो कि किसी तरह पर रस्सी से बंध गया हो और ऊपर से उसको मार पड़ती हो, ऐसी अवस्था में तीव्र व्यथा का अनुभव करने वाले उस मृग को क्या वहां पर कोई आनन्द है और वह वहां पर रहने को प्रसन्न हो सकता है । उसी प्रकार विषयपाश से बंधे हुए और ऊपर से काम मोहादि के प्रहारों की भरमार होने से परम व्यथित हुए इस जीव को घर में कभी शरण नहीं मिल सकती तब उसके लिये यही उचित है कि वह घर से निकल कर धर्म में दीक्षित हो जावे । तदनुसार हम को भी इस घर में किसी प्रकार के आनन्द की उपलब्धि नहीं हो सकती। ..
: कुमारों के इस कथन को सुनकर भृगु पुरोहित ने इस विषय में जो शंका उठाई, अब उसका वर्णन करते हैंकेण अब्भाहओ लोगो, केण वा परिवारिओ। का वा अमोहा वुत्ता, जाया चिन्तावरो हुमे ॥२२॥ केनाभ्याहतो .. लोकः, केन वा परिवारितः । का वाऽमोघा उक्ता, जातौ!चिन्तापरोभवामि ॥२२॥
पदार्थान्वयः-केण-किसने अब्भाहओ लोगो-पीड़ित किया लोक चा-अथवा केण-किसने परिवारिओ-परिवेष्टित किया वा-अथवा का-कौन सी अमोहा-शस्त्रधारा वुत्ता-कही है ? जाया-हे पुत्रो ! चिंतावरो-चिन्ता युक्त हुमेमैं होता हूं।
मूलार्थ-यह लोक किसने पीड़ित किया अथवा किसने वेष्टित किया है, तथा शस्त्रों की धारा कौन सी है ? हे पुत्रो ! मैं यह जानने के लिये बड़ा चिंतित हो रहा हूं।