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६६२ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[द्वावशाध्ययनम् - टीका-जब यादवों के समूह से परिवृत हुए राजकुमार चले, तब उनके साथ गज, रथ, अश्व और पैदल सवार—यह चार प्रकार की सेना—जिसकी क्रमपूर्वक रचना की गई थी—आगे २ चल रही थी और वादित्रों के गम्भीर शब्द से आकाश गूंज रहा था । यहाँ पर सर्वत्र लक्षण में तृतीया विभक्ति का प्रयोग है। और 'दिव्वेण गगणंफुसे' यह आर्षप्रयोग है। एवं नाद शब्द के पूर्व जो 'सम्' उपसर्ग लगाया गया है, वह वादित्रों के शब्द की मनोहरता का सूचक है। .
एयारिसीइ इडीए, जुइए उत्तमाइ य। नियगाओ भवणाओ, निजाओ वण्हिपुंगवो ॥१३॥ .. एतादृश्या ऋद्धया, द्युत्या उत्तमया च।। निजकात् भवनात् , निर्यातो वृष्णिपुङ्गवः ॥१३॥
.. पदार्थान्वयः-एयारिसीइ-इस प्रकार की इड्डीए-ऋद्धि से उत्तमाइउत्तम य-और जुइए-ज्योति वाली से नियगाओ-अपने भवणाओ-भवन से निजाओ-निकले वहिपुगवो-वृष्णिपुंगव ।।
मूलार्थ-इस प्रकार की सर्वोत्तम युतियुक्त समृद्धि से परिवृत हुए वृष्णिपुंगव अपने भवन से निकले।
___टीका-जब अरिष्टनेमिकुमार विवाहयात्रा के लिए श्रृंगारित किये गये, तब पूर्वोक्त ऋद्धि के साथ वह अपने भवन से निकल पड़े। वह ऋद्धि सर्वप्रधान थी और विशेष प्रकाश वाली थी क्योंकि उसका सम्पादन वासुदेव ने बड़े ही समारोह और आडम्बर से किया था। यहाँ पर वृष्णिपुंगव यादवों में प्रधान इस कथन से अरिष्टनेमिकुमार का ही ग्रहण अभिप्रेत है। अतएव वृत्तिकार लिखते हैं—'वृष्णिपुङ्गवः यादवप्रधानो भगवानरिष्टनेमिरिति यावत्।' तात्पर्य यह है कि वह तीर्थंकर नाम और गोत्र को बाँधकर ही यादवकुल में उत्पन्न हुए हैं। इसी लिए उनको 'वृष्णिपुंगव' कहा गया है।
भवन से निकलने के बाद क्या हुआ, अब इस विषय में कहते हैंअह सो तत्थ निजन्तो, दिस्स पाणे भयदए । वाडेहिं पंजरोहिं च, सन्निरुद्दे सुदुक्खिए ॥१४॥