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द्वाविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[ ६६३ जीवियन्तं तु संपत्ते, मंसट्टा भक्खियव्वए। पासित्ता से महापण्णे, सारहिं इणमब्बवी ॥१५॥ अथ स तत्र निर्यन् , दृष्ट्वा प्राणिनो भयद्रुतान् । वाटकैः पञ्जरैश्च, सन्निरुद्धान् सुदुःखितान् ॥१४॥ जीवितान्तं तु सम्प्राप्तान्, मांसार्थं भक्षयितव्यान् । दृष्ट्वा स महाप्राज्ञः, सारथिमिदमब्रवीत् ॥१५॥
पदार्थान्वयः-अह-अनन्तर सो-वह तत्थ-वहाँ पर निजन्तो-निकलता हुआ पाणे-प्राणियों भयद्दए-भयद्रुतों को वाडेहिं-बाड़ों से च-और पंजरेहि-पंजरों से सनिरुद्धे-रोके हुओं को सुदुक्खिए-अति दुःखितों को दिस्स-देखकर जीवियन्तंजीवन के अन्त को संपत्ते-प्राप्त हुओं को मंसट्ठा-मांस के लिए भक्खियव्वएभक्षण किये जाने वालों को पासित्ता-देखकर से-वह महापण्णे-महाबुद्धिमान सारहिंसारथि को इणम्-इस प्रकार अब्बवी-कहने लगे । तु-संभावनार्थक है।
. मूलार्थ-तदनन्तर जब नेमिकुमार आगे गये तो उन्होंने भय से संत्रस्त हुए, पाड़ों और पिंजरों में बन्द करने से अत्यन्त दुःख को प्राप्त हुए प्राणियों को देखा, जो कि जीवन के अन्त को प्राप्त हो रहे हैं तथा जो मांस के निमित्त नियुक्त किये गये हैं। उन प्राणियों को देखकर नेमिकुमार अपने सारथि से इस प्रकार बोले
टीका-समस्त सेना और परिवार के साथ हस्ती पर सवार हुए नेमिकुमार जब विवाहमंडप के कुछ समीप पहुँचे तो उन्होंने वहाँ पर एक ओर बाड़े में बँधे हुए बहुत से पशुओं को देखा । उनमें से बहुत से तो बाड़े में बन्द किये हुए थे
और बहुत से पिंजरों में डाले हुए थे । तात्पर्य यह है कि जो तो चतुष्पाद पशु थे, वे तो चारों ओर से दीवार किये गये मकान में ठहराये हुए थे और जो उड़ने वाले प्राणी थे, वे पिंजरों में बन्द किये हुए थे। परन्तु वे सब के सब भय से सन्त्रस्त थे तथा अपने जीवन के अन्त की प्रतीक्षा में थे। कारण यह है कि उनके मांस से आये हुए मांसभक्षी बरातियों को तृप्त करना था अर्थात् उनको वध करने के लिए ही वहाँ पर नियुक्त कर रक्खा था । सो जिस समय राजकुमार अरिष्टनेमि ने