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द्वाविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । अथवा शरीर की अतिप्रिय, अतिमनोहर आकृति को समचतुरस्र कहते हैं तथा उनका उदर-वक्षःस्थल मत्स्य के समान विशाल था। जब वे अरिष्टनेमि युवावस्था को प्राप्त हुए, तब श्रीकृष्ण वासुदेव ने महाराजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती को उनके लिए उग्रसेन से माँगा । तात्पर्य यह है कि अरिष्टनेमि के साथ कुमारी राजीमती का विवाह कर देने को महाराजा उग्रसेन से कहा ।
अब राजीमती के विषय में कहते हैंअह सा रायवरकन्ना, सुसीला चारुहिणी। सव्वलक्खणसंपन्ना , विज्जुसोआमणिप्पभा ॥७॥ अथ सा राजवरकन्या, सुशीला चास्प्रेक्षिणी । सर्वलक्षणसम्पन्ना , विद्युत्सौदामिनीप्रभा ॥७॥
पदार्थान्वयः-अह-अथ सा-वह रायवरकन्ना-राजश्रेष्ठकन्या सुसीलासुन्दर स्वभाव वाली चारुपेहिणी-सुन्दर देखने वाली सव्व-सर्व लक्खण-लक्षणों से संपन्ना-युक्त विज्जु-अति दीप्त सोआमणी-बिजली के समान प्पभा-प्रभा वाली।
मूलार्थ-वह राजवरकन्या सर्वलक्षणसम्पन्न, अच्छे स्वभाव वाली, सुन्दर देखने वाली, परम सुशील और प्रदीप्त बिजली के समान कान्ति वाली थी।
टीका-इस गाथा में राजीमती के गुण और सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। जैसे कि राजवरकन्या अथवा राजा की प्रधान कन्या राजीमती अति सुशील
और सुन्दर देखने वाली थी, तात्पर्य यह है कि उसमें चपलता नहीं थी और गमन में वक्रता भी नहीं थी। इसी लिए वह स्त्रीजनोचित सर्वलक्षणों से युक्त थी। तात्पर्य यह है कि कुलीन और सुशील स्त्रियों में जो गुण और जो लक्षण होने चाहिएँ, वे सब राजीमती में विद्यमान थे। उसके शरीर की कान्ति अति दीप्त बिजली के समान थी अथवा अग्नि और विद्युत् के समान उसके शरीर की प्रभा थी । अथवाविद्युत्-बिजली और सौदामिनी–प्रधान मणि के समान जिसके शरीर की कान्ति-प्रभा है। इससे उसके प्रभावमय शारीरिक सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।