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अह रहनेमिज्जं बावीसइमं अज्झयणं
अथ रथनेमीयं द्वाविंशमध्ययनम्
पूर्वोक्त इक्कीसवें अध्ययन में विविक्तचर्या का वर्णन किया गया है । परन्तु विविचर्या के लिए पूर्ण संयमी और धैर्यशील पुरुष ही उपयुक्त सकता है, अन्य नहीं । यदि किसी अशुभ कर्म के उदय से संयम में शिथिलता उत्पन्न होने लगे तो उसको रथनेमि की भाँति दृढतापूर्वक उस शिथिलता को दूर करके संयम को उज्ज्वल रखने का प्रयत्न करना चाहिए, जिससे निर्वाणपद की प्राप्ति सुलभ हो जाय । इसलिए अब बाईसवें अध्ययन में रथनेमि का वर्णन किया जाता है । परन्तु प्रसंगवशात् प्रथम बाईसवें तीर्थंकर श्रीअरिष्टनेमि नेमिनाथ का किंचित् वर्णन करते हैं—
सोरियपुरंमि नयरे, आसि राया महिड्डिए । वसुदेव त्ति नामेणं, रायलक्खणसंजुए शौर्यपुरे नगरे, आसीद्राजा वसुदेव इति नाम्ना, राजलक्षणसंयुतः
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महर्द्धिकः ।
॥१॥
मूलार्थ – सोरिय - सौर्य पुरंमि - पुर नयरे - नगर में आसी - था राया - राजा महिड्डिए - महती ऋद्धि वाला वसुदेव - वसुदेव त्ति - इस नामे - नाम से प्रसिद्ध था रायलक्खण - राजलक्षणों से संजुए - संयुक्त था ।