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________________ एकविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ६५१ करनी कि यह घृत अब फिर दुग्ध के पर्याय को प्राप्त हो जाय, एक प्रकार की प्रौढ अज्ञानता है। इसी प्रकार कर्ममल से सर्वथा रहित हो जाने वाले आत्मा की पुनरावृत्ति नहीं होती। किसी २ प्रति में 'निरंजणे' के स्थान पर 'निरंगणे' पाठ भी देखने में आता है। उसका अर्थ वृत्तिकार इस प्रकार लिखते हैं-'अङ्गेर्गत्यर्थत्वात् , निरंगनःप्रस्तावात् संयमं प्रति निश्चलः शैलेश्यवस्थाप्राप्त इति यावत्' अर्थात् संयम के प्रति निश्चल होकर शैलेशी अवस्था को प्राप्त हुआ। 'त्ति बेमि—इति ब्रवीमि'—ऐसा मैं कहता हूँ । इसकी व्याख्या पहले की तरह ही जान लेनी। एकविशाध्ययन समाप्त
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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